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प्रात्मा में विकार विजातीय है ।
राग और द्वेष आदि कषाय के कारण निर्मल आत्मा मलिन बन जाती है। प्रात्म में जो कुछ भी मलिनता है, वह अपनी नहीं है, बल्कि पर के संयोग से आई है। और जे वस्तु पर के संयोग से आती है, वह कभी स्थायी नहीं रहती। अमल-धवल वसन में जे मल आता है, वह शरीर संयोग से आता है। धवल वस्त्र में जो मलिनता है, वह उसर्क अपनी नहीं है। वह पर की है, इसीलिए उसे दूर भी किया जा सकता है। यदि मलिनता वस्त्र की अपनी होती, तो हजार बार धोने से भी वह कभी दूर नहीं हो सकती थी। धवल वस्त्र को प्राप किसी भी रंग में रंग लें, क्या वह रंग उसका अपना है? वह रंग उसका अपना रंग कदापि नहीं है। जैसे संयोग मिलते रहे, वैसा ही उसका रंग बदलता रहा। अतः वस्त्र में जो मलिनता है अथवा रंग है, वह उसका अपना नहीं है, वह पर-संयोग जन्य है। विजातीय तत्त्व का संयोग होने पर, पदार्थ में जो परिवर्तन पाता है, जैन-दर्शन की निश्चय-दष्टि और वेदान्त की परमार्थ-दृष्टि उसे स्व में स्वीकार नहीं करती। जो भी कुछ पर है, यदि उसे अपना मान लिया जाए, तो फिर संसार में जीव और अजीव की व्यवस्था ही नहीं रहेगी। पर-संयोग-जन्य राग-द्वेष को यदि आत्मा का अपना स्वभाव मान लिया जाए, तो करोड़ों वर्षों की साधना से भी राग-द्वेष दूर नहीं किए जा सकते।
जैन-दर्शन के अनुसार प्रात्मा ज्ञानावरणादि कर्म से भिन्न है, शरीर आदि नोकर्म से भिन्न है और कर्म-संयोगजन्य रागादि अध्यवसाय से भी भिन्न है। कर्म में, मैं हैं, और नोकर्म में, मैं हूँ, इस प्रकार की बुद्धि तथा यह कर्म और नोकर्म मेरे हैं, इस प्रकार की बुद्धि, मिय्यादष्टि है। यदि कर्म को आत्मा मान लिया जाए, तो फिर आत्मा को कर्म-स्वरूप मानना पड़ेगा। इस प्रकार जीव में अजीवत्व आ जाएगा और अजीव में जीवत्व चला जाएगा। इस दष्टि से जैन-दर्शन का यह कथन यथार्थ है कि यह राग, यह द्वेष, यह मोह और यह अज्ञान न कभी मेरा था और न कभी मेरा होगा। प्रात्मा के अतिरिक्त संसार में अन्य जो भी कुछ है, उसका परमाणु मात्र भी मेरा अपना नहीं है। अज्ञानी आत्मा यह समझती है कि मैं कर्म का कर्ता हूँ और मैं ही कर्म का भोक्ता हूँ। व्यवहार-नय से यह कथन हो सकता है, किन्तु निश्चय-नय से प्रात्मा पुद्गल रूप कर्म का न कर्ता है और न कर्म-फल का भोक्ता है। पर का कर्तृत्व और भोक्तृत्व आत्मा के धर्म नहीं हैं। क्योंकि परम शुद्ध नय से प्रात्मा निज स्वभाव का ही कर्ता और भोक्ता है। वह तो एकमात्र ज्ञायक स्वभाव है और ज्ञातामात्र है। ज्ञान प्रात्मा का अपना निज स्वभाव है। उस में जो कुछ मलिनता आती है, वह विजातीय तत्त्व के संयोग से ही आती है। विजातीय तत्त्व के संयोग के विलय हो जाने पर ज्ञान स्वच्छ, निर्मल और पवित्र हो जाता है। सावरण ज्ञान मलिन होता है और निरावरण ज्ञान निर्मल और स्वच्छ होता है। ज्ञान की निर्मलता और स्वच्छता तभी सम्भव है. जबकि राग और द्वेष के विकल्पों का प्रात्मा में से सर्वथा अभाव हो जाए। निर्विकल्प और निर्द्वन्द्व स्थिति ही आत्मा का अपना सहज स्वभाव है। रागी आत्मा प्रिय वस्तु पर राग करती है और अप्रिय वस्तु पर द्वेष करती है, पर यथार्थ दृष्टिकोण से देखा जाए, तो पदार्थ अपने आप में न प्रिय है, न अप्रिय है। हमारे मन की रागात्मक और द्वेषात्मक मनोवृत्ति ही किसी भी वस्तु को प्रिय और अप्रिय बनाती है। जब तक किसी भी प्रकार का विकल्प, जो कि पर-संयोग-जन्य है, आत्मा में विद्यमान है, तब तक स्वरूप की उपलब्धि हो नहीं सकती है। ज्ञानात्मक भगवान् आत्मा को समझने के लिए निर्मल और स्वच्छ ज्ञान की आवश्यकता है। ज्ञान में यदि निर्मलता का अभाव है, तो उससे वस्तु का यथार्थ बोध भी नहीं हो सकता। जैन-दर्शन की दृष्टि से ज्ञान और प्रात्मा भिन्न नहीं, अभिन्न ही है । ज्ञान से भिन्न आत्मा अन्य कुछ भी नहीं है, ज्ञान-गुण में अन्य सब गुणों का समावेश हो जाता है।
कहने का भाव यही है कि हमारे अशुभ विकल्प शुभ विकल्पों से लड़ें और इस प्रकार इन दोनों की लड़ाई में प्रात्मा तटस्थ बन कर देखती रहे । जब दोनों ही खत्म हो जाएंगे,
चेतना का विराट रूप
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