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स्थूल हैं । इनके बीच की सूक्ष्म अवस्थाओं का यदि विचार किया जाए, तो ताम्र से हरित तक हजारों-लाखों अवस्थाएँ हो सकती हैं और हरित से पीत तक करोड़ों अवस्थाएँ हो सकती हैं। वस्तुत: यह हमारी परिगणना भी बहुत ही स्थूल है । जैन दर्शन के अनुसार तो उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन आ रहा है, जिसे हम अपनी चर्मचक्षुत्रों से देख नहीं सकते । कल्पना कीजिए, श्रापके समक्ष कोमल कमल के शतपत्र एक के ऊपर एक गड्डी बना कर रखे हुए हों, आपने एक सूई ली और एक झटके में उन्हें बींध दिया। नुकीली सूई एक साथ एक झटके में ही कमल के शतपत्रों को पार कर गई। पर, सूक्ष्मता से देखा जाए, तो सूई ने पत्तों को एक साथ नहीं, क्रमशः ही पार किया है। किन्तु यह काल-गणना सहसा ध्यान में नहीं आती । शत - पत्र कमल-भेदन में काल क्रम की व्यवस्था है, किन्तु उसकी प्रतीति हमें नहीं होने पाती है। इसी प्रकार हर परिवर्तन के काल क्षणों की धारा असंख्य है । जो अत्यधिक सूक्ष्म होने से हमारी दृष्टि की पकड़ में नहीं आ पाती है। और फिर पत्ते में केवल वर्ण ही नहीं होता, वर्ण के अतिरिक्त उसमें गन्ध, रस और स्पर्श आदि भी रहते हैं । किन्तु, जब हम नेत्र के द्वारा पत्ते को देखते हैं, तब उसके रूप का ही परिज्ञान होता है । जब हम उसे सूंघते हैं, तब हमें उसकी गंन्ध का ही परिज्ञान होता है, रूप का नहीं। जब हम उसको अपनी जिह्वा पर रखते हैं, तब हमको उसके रस का ही परिबोध होता है, वर्ण और गन्ध का नहीं । जब हम उसे हाथ से छूते हैं, तब हमें उसके स्पर्श का ही ज्ञान होता है, वर्ण, गन्ध और रस का नहीं। जब हम तज्जन्य शब्द को सुनते हैं, तब शब्द का ही हमें ज्ञान होता है, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का नहीं। फिर हम यह कैसे दावा कर सकते हैं कि हमने नेत्र से पत्ते को देखकर उसकी सम्पूर्णता का ज्ञान कर लिया। जब तक हमारा ज्ञान सावरण है, तब तक हम किसी भी वस्तु के सम्पूर्ण रूप को नहीं जान सकते। सावरण ज्ञान खण्डखण्ड में ही वस्तु का परिज्ञान करता है । वस्तु का सम्पूर्ण ज्ञान तो एकमात्र निरावरण केवलज्ञान में ही प्रतिबिम्बित हो सकता है । इसलिए प्राचार्य श्री अमृतचन्द्र ने कहा है-
" तज्जयति परं ज्योतिः
समं समस्तैरनन्तपर्यायः । दर्पणतल इव सकला, प्रतिफलति पदार्थ - मालिका यत्र ।'
-- जिस प्रकार दर्पण के सामने आया हुआ पदार्थ, उसमें प्रतिबिम्बित हो जाता है, उसी प्रकार जिस ज्ञान में अपने-अपने अनन्त गुणों - अनन्त पर्यायों के साथ अनन्तअनन्त पदार्थ युगपद् झलकते हैं, वह ज्ञान ज्योति केवलज्ञान है । केवलज्ञान प्रावरण रहित होता है । उसमें किसी प्रकार का आवरण नहीं रह पाता । अतः पदार्थ का सम्पूर्ण रूप ही उसमें प्रतिबिम्बित होता है । दर्पण में जब किसी भी पदार्थ का प्रतिबिम्ब पड़ता है, तब इसका अर्थ यह नहीं होता कि पदार्थ दर्पण बन गया अथवा दर्पण पदार्थ बन गया । पदार्थ, पदार्थ के स्थान पर है और दर्पण, दर्पण के स्थान पर। दोनों की अपनी अलग-अलग सत्ता है । दर्पण में विम्ब के प्रतिबिम्ब को ग्रहण करने की शक्ति है और बिम्ब में प्रतिबिम्बित होने की शक्ति है । अतः दर्पण में पदार्थ का प्रतिबिम्ब ही पड़ता है । केवलज्ञान में पदार्थ को जानने की शक्ति है, और पदार्थ में ज्ञान का ज्ञेय बनने का स्वभाव है । जब ज्ञान के द्वारा किसी पदार्थ को जाना जाता है, तब इसका अर्थ यह नहीं होता कि ज्ञान पदार्थ बन गया है, अथवा पदार्थ ज्ञान बन गया है। ज्ञान, ज्ञान की जगह है और पदार्थ, पदार्थ की जगह है। दोनों को एक समझना एक भयंकर मिथ्यात्व है। ज्ञान का स्वभाव है जानना और पदार्थ का स्वभाव है, ज्ञान के द्वारा ज्ञात होना । केवलज्ञान एक पूर्ण और निरावरण ज्ञान है । इसीलिए उसमें संसार के अनन्त पदार्थ एक साथ झलक जाते हैं । और एक पदार्थ के अनन्त अनन्त पर्याय भी एक साथ झलक जाते हैं । इसीलिए आचार्य
यह कहा है कि विश्व की सम्पूर्ण पदार्थमालिका केवलज्ञानी के ज्ञान में प्रतिक्षण प्रतिबम्बत होती रहती है । केवलज्ञान अनन्त होता है, इसीलिए उसमें विश्व के अनन्त पदार्थों को जानने की शक्ति है । अनन्त ही श्रनन्त को जान सकता है ।
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पन्ना समिक्ख धम्मं
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