________________
जीव अधिकार
२७
तथाहि ह्न
(मालिनी) जगदिदमजगच्च ज्ञाननीरेरुहान्त
भ्रमरवदवभाति प्रस्फुटं यस्य नित्यम् । तमपि किल यजेहं नेमितीर्थंकरेशं
जलनिधिमपि दोभ्या॑मुत्तराम्यूव॑वीचिम् ।।१४।। तस्स मुहुग्गदवयणं पुव्वावरदोसविरहियं सुद्धं ।
आगममिदि परिकहियं तेण दु कहिया हवंति तच्चत्था ।।८।। छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(रोला) अलिगण स्वयं समा जाते ज्यों कमल पुष्प में।
त्यों ही लोकालोक लीन हों ज्ञान कमल में || जिनके उन श्री नेमिनाथ के चरण जनँ मैं।
हो जाऊँ मैं पार भवोदधि निज भुजबल से ||१४|| जिसप्रकार कमल के भीतर भ्रमर समा जाते हैं; उसीप्रकार जिनके ज्ञानकमल में लोक और अलोक समा जाते हों, स्पष्टरूप से ज्ञात होते हों; उन नेमिनाथ तीर्थंकर भगवान को मैं पूजता हूँ; जिससे ऊँची तरंगों वाले संसार समुद्र को भी दो भुजाओं से पार कर लूँ।
७वीं गाथा में तीर्थंकर परमदेव का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। इसकारण टीका में मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव ने तीर्थंकर परमदेव की जिसमें स्तुति की गई है ह ऐसी प्रवचनसार ग्रंथ की गाथा और समयसार की टीका के कलश को उद्धृत किया है।
नेमिनाथ तीर्थंकर परमदेव की स्तुति संबंधी एक छन्द स्वयं भी बनाकर अपनी भक्तिभावना प्रस्तुत की है।।१४।।
विगत गाथाओं में सच्चे देव का स्वरूप स्पष्ट किया गया है और अब इस गाथा में शास्त्र का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(हरिगीत ) पूरवापर दोष विरहित वचन जिनवर देव के। आगम कहे है उन्हीं में तत्त्वारथों का विवेचन ||८||