________________
नियमसार
तथा चोक्तं श्रीमदतचन्द्रसूरिभिः ह्न
(शार्दूलविक्रीडित) कांत्यैव स्नपयंति ये दशदिशो धाम्ना निरुन्धति ये धामोद्दाममहस्विनां जनमनो मुष्णन्ति रूपेण ये। दिव्येन ध्वनिना सुखं श्रवणयोः साक्षात्क्षरंतोऽमृतं
वंद्यास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः सूरयः ।।४।। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न।
( हरिगीत ) प्राधान्य है त्रैलोक्य में ऐश्वर्य ऋद्धि सहित हैं।
तेज दर्शन ज्ञान सुख युत पूज्य श्री अरहंत हैं।।३।। जिनका तेज, केवलदर्शन, केवलज्ञान, अतीन्द्रियसुख, देवत्व और जिनकी ईश्वरता, ऋद्धियाँ, तीन लोक में प्रधानपना और विशेष महिमा है; वे भगवान अरहंत हैं ।।३।।
इसके बाद तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः ह्न तथा श्रीमद् आचार्य अमृतचन्द्र ने भी कहा है' ह ऐसा लिखकर एक छन्द उदधत किया है। जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत ) लोकमानस रूप से रवितेज अपने तेज से। जो हरें निर्मल करें दशदिश कान्तिमय तनतेज से।। जो दिव्यध्वनि से भव्यजन के कान में अमृत भरें।
उन सहस अठलक्षणसहित जिन-सूरिको वन्दन करें||४|| वे तीर्थंकर और आचार्यदेव वन्दना करने योग्य हैं, जो कि अपने शरीर की कान्ति से दशों दिशाओं को धोते हैं, निर्मल करते हैं; अपने तेज से उत्कृष्ट तेजवाले सूर्यादिक को भी ढक देते हैं; अपने रूप से जन-जन के मन को मोह लेते हैं, हर लेते हैं; अपनी दिव्यध्वनि से भव्यजीवों के कानों में साक्षात् सुखामृत की वर्षा करते हैं तथा एक हजार आठ लक्षणों को धारण करते हैं।
इसके बाद मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं; जिसमें भगवान नेमिनाथ की स्तुति की गई है।
१.समयसार, कलश २४