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षट् द्रव्य निरूपण
___ अम्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति, (अप्पा) यह आत्मा ही (दुहाण) दुःखों का (य) और (सुहाण) सुखों का (कत्ता) उत्पन्न करने वाला है (य) और (विकत्ता) नावा करने वाला है । (अप्पा) यह आस्मा ही (मित्त) मित्र है (घ) और (अमित) शत्रु है। और यही आत्मा (दुप्पट्टिय) दुराचारी और (सुपडिओ) सदाचारी है। ___ भावार्थ:-हे गोतम ! यही आत्मा दुःखों एवं सुखों के साधनों का कर्तारूप है और उन्हें नाश करने वाला मी मही आत्मा है। यही श्रम कार्य करने से मित्र के समान है और अशुम कार्य करने से शत्रु के सदृश हो जाता है सदाचार का सेवन करने वाला और दुष्ट आचार में प्रवृत्त होने वाला भी यही आत्मा है। मलः-न तं अरी कंठछेत्ता करे ।
जं से करे अप्पणिया दुरप्पया ॥ से जाहिई मामु पत
पच्छाणुतावेण दयाविहूणो ।।४।। . छाया:--न तरिः कण्ठच्छेत्ता करोति,
यत्तस्य करोत्यात्मीया दुरात्मता ! स ज्ञास्यति मृत्युमुखं तु प्राप्तः,
पश्चादनुतापेन दया विहीन: ।।४।। अन्वयार्थ:-हे इंद्रभूति ! (से) वह (अप्पणिया) अपना (दुरप्पया) दुरा. चरणशील आत्मा ही है जो (ज) उस अनर्थ को (करे) करता है। (त) जिसे (कंठछेत्ता) कंड का छेदन करने वाला (अरी) शत्रु मी (न) नहीं (करेइ) करता है (तु) परन्तु (से) यह (दयाविहूणो) दयाहीन दुष्टात्मा (मच्चुमुह) मृत्यु के मुंह में (पत्ते) प्राप्त होने पर (पच्छाणुतावेग) पश्चाताप करके (नाहिई) अपने आप को जानेगा। __ भाषाम:-हे गौतम ! यह दुष्टात्मा जैसे-जैसे अनर्थो को कर बैठता है वैसे अनर्थ एक वात्रु भी नहीं कर सकता है। क्योंकि मात्र तो एक ही बार