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निम्य-प्रवचन
छायाः-तथैव काणं काण इति,
पण्डकं पण्डक इति बा। व्याधिमन्तं वाऽपि रोगीति,
__स्तेनं चौर इति न वदेत् ।।४।। अम्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (तहेव) वैसे ही (काणं) काने को (काणे) काना है (त्ति) ऐसा (वा) अथवा (पंडग) नपुंसक को (पंडगे) नपुंसक है (ति) ऐसा (वा) अथवा (बाहिरं) व्याधिवाले को (रोगि) रोगी है (त्ति) ऐसा और (तण) पोर को (चौरे) घोर है (त्ति) ऐसा (नो) नहीं (वए) बोलना चाहिए ।
भावार्थ:-हे गौतम ! जो मनुष्य कहलाते है वे काने को काना, नपुसक को नपुसक, व्याधि बाल को रोगी ओर चोर को पोर ऐसा कमी नहीं बोलते हैं । क्योंकि वैसा बोलने में भाषा भले ही सत्य हो, पर ऐसा बोलने से उनका दिल दुखता है। इसीलिए यह असत्य माषा है, और इसे कमी न बोलना चाहिए। मूल:--देवाणं मणुयाणं च, तिरियाणं च वुगहे ।
अमुगाणं जओ होउ, मा वा होउ त्ति नो वए ।।५।। छायाः-देवानां मनुजानां च, तिरश्चां च विग्रहे ।
अमुकानां जयो भवतु, मा वा भवत्विति नो वदेत् ।।५।। सम्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (देवाण) देवताओं के (घ) और (मणुयाण) मनुष्यों के (च) और (तिरिमाणं) तियचों के (बुग्गहे) युद्ध में (अमुगाणं) अमुक की (जओ) जय (होउ) हो (वा) अथवा अमुक की (मा) मत (होउ) हो (त्ति) ऐसा (नो) नहीं (वए) बोसना चाहिए। ____भावार्थ:-हे गौतम ! देवता, मनुष्य और तिर्यंचों में जो परस्पर युद्ध हो रहा हो उसमें भी अमुक की जय हो अथवा अमुक की पराजय हो, ऐसा कभी नहीं बोलना चाहिए। क्योंकि एक की जय और दूसरे की पराजय बोलने से एक प्रसन्न होता है और दूसरा नाराज होता है । और जो बुद्धिमान् मनुष्य, ज्ञानीजन होते हैं वे किसी को दुःखी नहीं करते हैं।