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वैराग्य-सम्बोधन
छाया:-मातृभिः पितृभिलुप्यते, नो सुलभा सुगतिश्च प्रेत्य तु ।
एतानि भयानि प्रेक्ष्य, आरम्भाद्विरमेत्सुनत: ॥३॥
मन्वयार्थ:-हे पुत्रो ! माता-पिता के मोह में फंसकर जो धर्म नहीं करता है, यह माचाहि) माता (kिaife! ति के द्वारा ही पह) परिभ्रमण करता है (य) और उसे (पेच्चओ) परलोक में (सुगई) सुगति मिलना (सुसहा) सुलम (न) नहीं है। (एमाई) इन (मयाई) मयों को (पेहिया) देख कर (आरंमा) हिंसादि आरंभ से (विरमेज्ज) निवृत्त हो, वही (सुम्वए) सुव्रतवाला है।
भावार्थ:-हे पुत्रो ! माता-पितादि कौटुम्बिक जनों के मोह में फंसकर जिसने धर्म नहीं किया, वह उन्हीं के कारण संसार के चक्र में अनेक प्रकार के कष्टों को उठाता हुआ भ्रमण करता रहता है, और जन्म-जन्मान्तरों में भी उसे सुगति का मिलना सुलम नहीं है। अतः इस प्रकार संसार में भ्रमण करने से होने वाले अनेकों कष्टों को देखकर जो हिंसा, झूठ, घोरी, व्यभिचार बादि कामों से विरक्त रहे वही मानव-जीवन को सफल करने वाला सुप्रती पुरुष है । मूलः--जमिण जगती पुढो जगा,
____ कम्मेहि लुप्पंति पाणिणो ।
सयमेव कडे हि गाहर, ___णो तस्स मुच्चेज्जऽपुट्ठयं ।।४।।
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छायाः-यदिदं जगति पृथक् जगत्, कर्मभिलृप्यन्ते प्राणिनः ।
स्वयमेव कृतंर्गाहते नो, तस्य मुच्येत् अस्पृष्टः ॥४॥ अन्वयार्थ:-हे पुत्रो ! (जमिणं) जो हिंसा से निवृत्त नहीं होते हैं उनको यह होता है, कि (जगती) संसार में (पाणिणो) के प्राणी (पुढो) पृथक्-पृथक (जगा) पृथ्वी आदि स्थानों में (कम्मेहि) कर्मों से (लुम्पति) भ्रमण करते हैं। क्योंकि (सय मेव) अपने (कठेहिं) किये हुए कर्मों के द्वारा (गाहर) नरकावि
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