Book Title: Nirgrantha Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Jain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar

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Page 259
________________ २३४ निग्रंन्य-प्रवचन भावार्थ:-हे गौतम ! सम्यक्सान के प्रकाशन से, अज्ञान, अथद्धान् के, छूट जाने से और राग-द्वेष के समूल नष्ट हो जाने से, एकान्त सुख रूप जो मोक्ष है, उसकी प्राप्ति होती है। मृल:-सव्वं तओ जाणइ पासए य, ___ अमोहरो होइ निरंतराए । अणासवे झाणसमाहिजुत्ते, आउक्खए मोक्खमुवेइ सुद्ध ॥२२॥ छाया:-सर्वं ततो जानाति पश्यति च, अमोहनो भवति निरन्तरायः । अनास्रबो ध्यानसमाधियुक्तः, __ आयुःक्षये मोक्षमुपैति शुद्धः ।।२२।। अन्वयार्थ:-हे द्रभूति ! (तओ) सम्पूर्ण ज्ञान के हो जाने के पश्चात (सव्वं) सर्व जगत् को (जाणा) जान लेता है। (य) और (पासए) देख नेता है । फिर (अमोहणे) मोह रहित और (अणासवे) आसप रहित (होइ) होता है । (माणसमाहिबुत) शुक्लध्यान रूप समाधि से युक्त होने पर वह (आजक्खए) आयुष्य क्षय होने पर (सुद्ध) निर्मल (मोक्ख) मोम को (उवेइ) प्राप्त होता है। भावार्थ:-हे गौतम ! शुक्लध्यान रूप समाधि से युक्त होने पर वह जीव मोह और अन्तराय रहित हो जाता है । तया वह सर्व लोक को जान लेता है और देख लेता है । अर्थात् शुक्लध्यान के द्वारा जीव चार घनघातिया कर्मों का नाश करके इन चार गुणों को पाता है। तदनम्तर आय आदि चार अघातिया कर्मों का नाश हो जाने पर वह निर्मल मोक्ष स्थान को पा लेता है । मूस:-सुक्कमूले जहा रुक्खे, सिच्चमारणे ण रोहति । एवं कम्मा ण रोहंति, मोहणिज्जे खयगए ।।२३।।

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