Book Title: Nirgrantha Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Jain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar

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Page 257
________________ | निर्ग्रन्थ-प्रवचन अन्वयार्थ हे इन्द्रभूति ! वह स्थान (निम्वाणंति) निर्वाण (अनाहं ति) अबाष (सिद्ध) सिद्धि (म) और (एव) ऐसे ही (लोग) लोकाय (खेमं ) क्षेम (सिव) शिव (अणाबाह) अनाबाध, इन शब्दों से भी पुकारा जाता है। ऐसे ( जं) उस स्थान को (महेसिणो) महर्षि लोग ( चरति ) जाते है । २३२ भावार्थ :- हे गौतम! उस स्थान को निर्वाण भी कहते हैं, क्योंकि वह आत्मा के सर्व प्रकार के संतापों का एकदम अभाव रहता है । अबाधा भी उसी स्थान का नाम है, क्योंकि वहाँ आत्मा को किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होती है । उसको सिद्धि भी कहते हैं, क्योंकि आश्मा ने अपना दच्छित कार्ये सिद्ध कर लिया है। और लोक के अग्र भाग पर होने से लोकान भी उसी स्थान को कहते हैं । फिर उसका नाम क्षेम भी है, क्योंकि यहाँ आत्मा को शाश्वत सुख मिलता है । उसी को शिव भी कहते हैं, क्योंकि आत्मा निरुपद्रव होकर सुख मोती रहती है। इसी तरह उसको अनाबाध' भी कहते है क्योंकि वहाँ गयी दुई आत्मा स्वाभाविक सुखों का उपभोग करती रहती है, किसी भी तरह की बाधा उसे वह नहीं होती। इस प्रकार के उस स्थान को संयमी जीवन के बिताने वाली आत्माएँ शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त करती है। मूल:- नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा । एयं मग्गमणुप्पत्ता, जीवा गच्छति सोग्गई ॥ १६ ॥ छाया: - ज्ञानं च दर्शनं चैव चरित्रं च तपस्तथा । एतन्मार्गमनुप्राप्ताः जीवा गच्छन्ति सुगतिम् ॥ १६ ॥ ! अग्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! (नाणं) ज्ञान (च) और (दंसणं) श्रद्धान (चेक) और इसी तरह (चरितं ) चारित्र ( प ) और (तहा) वैसे ही तवो) तप (एयं ) इन चार प्रकार के ( मग्गं) मार्ग को (अणुध्वसा) प्राप्त होने पर ( जीवा ) जीव ( सोग्ाई) मुक्ति गति को (गच्छंति) प्राप्त होते है । भावार्थ: है गौतम ! इस प्रकार के मोक्ष स्थान में यही जीव पहुंच पाता है, जिसे सम्यक ज्ञान है, वीतरागों के वचनों पर जिसे श्रद्धा है, जो चारित्रवान है और तप में जिसकी प्रवृत्ति है। इस तरह इन चारों मार्गों को यथाविधि १ Natural happiness.

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