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मोक्ष-स्वरूप
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जो पालन करता रहता है। फिर उसके लिए मुक्ति कुछ भी दूर नहीं है। क्योंकिमूलः --नाणेण जाणई भावे, दसरणेण य सद्दहे।
चरित्रोण निगिण्हइ, तवेण परिसुज्झई ॥२०॥ छायाः-ज्ञानेन जानामि भावान दर्शनेन च श्रद्धते ।
चारित्रेण निगृह्णाति, तपसा परिशुद्धयति ॥२०॥ अन्याः - है इस भूति ! (नाणेण) ज्ञान से (मावे) जीवादिक तत्वों को (जाणई) जानता है (य) और (दसणण) दर्शन से उन तत्त्वों को (सद्दहे) श्रद्धता है । (चरितण) पारित्र से नवीन पाप (निगिण्डइ) रुकता है। और (तवेण) सपस्या करके (परिसुजाई) पूर्व संचित कर्मों को क्षय कर डालता है ।
भावार्थ:-हे गौतम ! सम्यकजान के द्वारा जीव तात्त्विक पदार्थों को भलीभांति जान लेता है। दर्शन के द्वारा उसकी उनमें श्रद्धा हो जाती है। चारित्र अर्थात् सदाचार से मावी नवीन कर्मों को वह रोक लेता है। और सपस्या के द्वारा करोड़ों भवों के पापों को वह क्षय कर डालता है। मल:-नाणस्स सव्वस्स पगासणाए,
अण्णाण मोहस्स विवज्जणाए । रागस्स दोसस्स य संखएणं,
__एगतसोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥२१॥ छाया:-ज्ञानस्य सर्वस्य प्रकाशनया, अज्ञानमोहस्य विवर्जनया।
रागस्य द्वेषस्य च संक्षयेण, एकान्तसौख्यं समुपैति मोक्षम् ॥२१॥ अन्वयार्थ:-- हे इन्द्रभूति ! आत्मा (मन्वस्स) सर्व (माणस्स) ज्ञान के (पगासणाए) प्रकाशित होने से (अण्णाणमोहस्स) अज्ञान और मोह के (विवज्जणाए) छूट जाने से (य) और (रागस्स) राग (दोसस्स) उष के (संखएण) क्षय हो जाने से (एगंतसोक्ख) एकान्त सुख रूप (मोक्ख) मोक्ष को (समुवेह) प्राप्ति करता है।