Book Title: Nirgrantha Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Jain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar

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Page 262
________________ मोक्ष-स्वरूप २३७ के अग्रमाग पर ठहरी रहती हैं। वे आत्माएँ इस मानव शरीर को यहीं छोड़. कर लोकान पर सिद्धात्मा होती हैं । मूल: अरूविणो जीवघणा, नाणदंसणसन्निया। अउल सुहसंपन्ना, उनमा जस्स नस्थि उ ॥२७॥ छाया:-अरूपिणो जीवधनाः, ज्ञानदर्शनसंजिताः । असुलं सुखं सम्पन्नाः, उपमा यरम मास्ति ।।२७. अन्वयार्थ:-हे गौतम ! (अरूविणो) सिद्धात्मा अरूपी हैं । और (जीवथणा) वे जीव घन रूप हैं। (नाणदंससनिया) जिनकी केवलज्ञान दर्शन रूप ही संज्ञा है। (अउल) अतुल (मूहसंपन्ना) मुखों से युक्त हैं (जस्स उ) जिसकी तो (उवमा) उपमा मी (नस्थि) नहीं है । भावार्थ:-. हे गौतम ! जो आत्मा सिद्धारमा के रूप में होती हैं, वे अरूपी हैं, उनके आत्म-प्रदेश मान रूप में होते है। ज्ञान दर्शन रूप ही जिनकी केवल संज्ञा होती है और वे सिद्धात्माएँ अतुल सुख से युक्त रहती है। उनके सुखों की उपमा गी नहीं दी जा सकती है। ॥ श्री सुधर्मोवाच ॥ मूलः- एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी, अणुत्तरदसी अणत्तरनाणदसणधरे । अरहा णायपुत्ते भयवं, वंसालिए विआहिए ति बेमि ॥२८॥ । छाया:-- एवं स उदाहृतवान् अनुत्तरज्ञान्यनुत्तरदर्शी, अनुत्तर ज्ञानदर्शनधरः । अर्हन् ज्ञातपुत्रः भमवान्, वैशालिको विख्यात: ॥२८॥

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