Book Title: Nirgrantha Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Jain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar

View full book text
Previous | Next

Page 260
________________ मोक्ष-स्वरूप २३५ छायाः-शुष्कमूलो यथा वृक्षः, सिञ्चमानो न रोहति । एतं कर्माणि न रोहन्ति मोहनीये क्षयंगते ।।२३।। सम्वयार्थः-- हे इन्द्रभूति ! (जहा) जैसे (सुक्काले) सुख भया है मूल जिसका ऐसा (रुक्खे) वृक्ष, (सिंचमाणे) सींचने पर (ण) नहीं (रोहति) लहलहासा है (एव) उसी प्रकार (मोहणिज्जे) मोहनीय कर्म (वयंमए) क्षय हो जाने पर पुनः (कम्मा) फर्म (ण) नहीं (रोहति) उत्पन्न होते हैं। भावार्थ-हे गोतम ! जिस वृक्ष की जड़ सूख गई हो उसे पानी से सींचने पर भी वह लहलहाता नहीं है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने पर पुनः कर्म उत्पन्न नहीं होते हैं। क्योंकि, जब कारण ही नष्ट हो गया, तो फिर कार्य कैसे हो सकता है ? मुल:-जहा दद्धाणं बीयाणं, ण जाति पुर्णकुरा । कम्मबीएसु दड्ढेस, न जायंति भवंकुरा ||२४|| छाया:-यथा दग्धानामत राणाम्, न जायन्ते पुनरंकुराः । कर्मबीजेषु दग्धेषु, न जायन्ते भवांकुराः ।।२४।। अम्बया :-हे इन्द्रभूति ! (जहा) जैसे (दाणं) दम्ब (बीयाणं) बीजों के (पुणकुरा) फिर अंकुर (ण) नहीं (जायंति) उत्पन्न होते हैं। उसी प्रकार (दले सु) दाध (कम्मबीएसु) कर्म बीजों में से (मवंकुरा) मव रूपी अंकुर (न) नहीं (जाति) उत्पन्न होते हैं। भावार्थ:-है गौतम ! जिस प्रकार जले भूजे बीजों को बोने से अंकुर उत्पात नहीं होता है, उसी प्रकार जिसके कर्म रूपी बीज नष्ट हो गये हैं, सम्पूर्ण क्षय हो गये हैं, उस अवस्था में उसके भव रूपी अंकुर पुनः उत्पन्न नहीं होते हैं। यही कारण है कि मुक्तात्मा फिर कमी मुक्ति से लौटकर संसार में नहीं आते । ॥ श्री गौतमउवाच ॥ मूलः...कहि पडिहया सिद्धा, कहिं सिद्धा पइट्रिया । कहिं बोंदि चइत्ता णं' , कत्थ गंतूण सिज्झई ।।२५।। १ णं वाक्यालंकार।

Loading...

Page Navigation
1 ... 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277