Book Title: Nirgrantha Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Jain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar

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Page 255
________________ २३० निग्रंन्य-प्रवचन चित्त करे, हाथ जोड़-जोड़ कर उनके क्रोध को शारत करे, और यों कहकर कि “इस प्रकार" का अविनय या अपराध आगे से में कमी नहीं करूंगा, अपने अपराध की क्षमा याचना करे । मूल:---णच्चा णमई मेहावी, लोए कित्ती से जायइ । हबई किच्चाण सरण, भूयाणं जगइ जहा ।।१५|| छाया:-ज्ञात्वा नमति मेधावी, लोके कीर्तिस्तस्य जायते । भवति कृत्यानां शरणं, भूतानां जगती यथा ॥१५॥ अन्वयार्थः -हे इन्द्रभूलि ! इस प्रकार विनय को महत्ता को पच्चा) जान कर (मेहावी) बुद्धिमान् मनुष्य (णमई) विनयशील हो, जिससे (से) वह (लोए) इस लोक में (कित्ती) कीर्ति का पात्र (जायइ) होता है । (बहा) जैसे (भूयाण) प्राणियों को (जगई) पृथ्वी आश्रयभूत है, ऐसे ही विनीत महानुभाव (क्रिच्चाण) पुण्य क्रियाओं का (सरणं) आश्रयरूप (हबइ) होता है । भावार्थ:-हे गौतम ! इस प्रकार विनय की महत्ता को ममा कर बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिए कि इस विनय को अपना परम सहचर सखा बनाले । जिससे वह इस संसार में प्रशंसा का पात्र हो जाय । जिस प्रकार यह पृथ्बी सभी प्राणियों को आश्रयरूप है, ऐसे ही दिनयशील मानव भी सदाचार हप अनुष्ठान का आश्रयरूप है । अर्थात् कृत कर्मों के लिए खदान रूप है । मल:----स देवगंधवमणुस्सपूइए, चइत्त देहं मलपंकपुब्वयं । सिद्ध वा हवइ सासए, देवे वा अप्परए महिडिए ॥१६॥ छाया:--स देवगन्धर्व मनुष्य पूजितः, त्यक्त्वा देह मलपङ्क पूर्वकम् । सिद्धो भवति शाश्वतः, देवो वापि महद्धिकः ।।१६।।

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