Book Title: Nirgrantha Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Jain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar

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Page 254
________________ मोक्ष-स्वरूप २२९ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जहा) से (आहिअग्गी) अग्निहोत्री ब्राह्मण (जलणं) अग्नि को (नमसे) नमस्कार करते हैं । तथा (नाणा हुई मंतपयामिसत्तं) नाना प्रकार से घी प्रक्षेप रूप आहुति और मंत्र पदों से उसे सिंचित करते हैं (एवायरियं) इसी तरह से बड़े-बूढ़े व मुरुजन और आचार्य की (अणंतनागोवगओसंतो) अनन्त ज्ञान मुत् होने पर (वि) मी (उचिट्ठाजा) सेवा करनी ही पाहिए। भावार्थ:- हे गौतम ! जिस प्रकार अग्निहोत्र ब्राह्मण अग्मि को नमस्कार करते हैं, और उसको अनेक प्रकार से घी प्रक्षेप रूप आहुति एवं मंत्र पदों से सिंचित करते हैं इसी तरह पुत्र और शिष्यों का कर्तव्य और धर्म है कि चाहे धे अनन्त ज्ञानी भी क्यों न हों उनको अपने बड़े-बूढ़े और गुरुजनों एवं आचार्य की सेवा शुश्रूषा करनी ही चाहिए । जो ऐसा करते हैं, वे ही सचमुष में विनीत हैं। मूल:-आयरियं कुवियं णच्चा, पत्तिएण पसायए। विज्झवेज्ज पंजलीउडो, वइज्ज ण पुणुत्ति य ॥१४॥ छाया:- आचार्य कुपितं ज्ञात्वा, प्रीत्या प्रसादयत् । विध्यापयेत् प्राञ्जलिपुटः, वन्न पुनरिति च ||१४|| अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (आरिय) आचार्य को (कुपियं) कुपित (णच्चा१) जान कर (पत्तिएण) प्रीतिकारक शब्दों से फिर (पसायए) प्रसन्न फरे (पंजलीउडो) हाथ जोड़ कर (विज्झज्ज) शान्त करे (य) और (ण पुणुत्ति) फिर ऐसा अविनय नहीं करूंगा ऐसा (वइज्ज) बोले ।। भावार्थ:-हे गोतम ! बड़े-बूढ़े गुरुजन एवं आचार्य अपने पुत्र शिष्यादि के अविनय से कुपित हो उठे तो प्रीतिकारक शन्दों के द्वारा पुनः उन्हें प्रसन्न (१) कई जगह "णच्या" की जगह 'नच्चा' मी मूल पाठ में आता है । ये दोनों शुद्ध हैं । क्योंकि प्राकृत में नियम है, कि "नो णः" नकार का कार होता है । पर शब्द के आदि में हो तो वहाँ वा आदो' इस सूम से नकार का णकार विकल्प से हो जाता है। अर्थात् नकार या णकार दोनों में से कोई भी एक हो।

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