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निग्रंन्य-प्रवचन
स्थानों को प्राप्त करते हैं। (तस्स) उन्हे (पुट्ठय) कम स्पर्श अर्थात् मोये बिना (णी) नहीं (मुच्चेज्ज) छोड़ते हैं।
भावार्थ:-हे पुत्रो ! जो हिंसादि से मुह नहीं मोड़ते हैं, वे इस संसार में पृथ्वी, पानी, नरक ओर तिर्यच्च आदि अनेकों स्थानों और योनियों में कष्टों के साथ घूमते रहते हैं। क्योंकि उन्होंने स्वयमेव ही ऐसे कार्य किये हैं, कि जिन कर्मों के भोगे बिना उनका छुटकारा कमी हो ही नहीं सकता है ।
मूलः-विरया वीरा समुढ़िया, कोहकारियाइपीसणा ।
पाणे ण हणंति सव्वसो, पाबाओ विरयाभिनिबुडा॥५॥
छाया:--विरता वीराः समुत्थिता:, क्रोधकातरिकादिषोषणाः ।
प्राणान्न घ्नन्ति सर्वशः, पापाद्विरता अभिनिवृताः ।।५।।
अम्बयार्थ:-हे पुत्रो ! (विरथा) जो पौद्गलिक सुलों से विरक्त है और (समुट्ठिया) सदाचार के सेवन करने में सावधान है, (कोहकाग्यिाइ) क्रोध, माया और उपलक्षण से मान एवं लोम को (पीसणा) नाश करने वाला है, (सब्यसो) मन, वचन, काया, से जो पाणे) प्राणों को (ण) नहीं (हति) हनता है (पावाओ) हिंसाकारी अनुष्टानों से जो (विरयामिनिबुडा) विरक्त है और क्रोधादि से उपशान्त है चित्त जिसका, उसको (वीरा) बीर पुरुष कहते हैं ।
भावार्थ:-हे पुत्रो ! मारकाट या खुद करके कोई वीर कहलाना चाहे तो वास्तव में यह वीर नहीं है। वीर तो वह है जो पौद्गलिक सुखों से अपना मन मोड़ लेता है, सदाचार का पालन करने में सदैव सावधानी रखता है, कोष, मान, माया और लोम इन्हें अपना आन्तरिक शत्रु समसकर, इनके साथ युद्ध करता रहता है चोर उस युद्ध में उन्हें नष्ट कर विजय प्राप्त करता है, मन, अपन और काया से किसी तरह दूसरों के हक में बुरा न हो, ऐसा हमेशा ध्यान रखता रहता है, और हिंसादि आरम्म से दूर रह कर जो उपशास्त चित्त से रहता है।