Book Title: Nirgrantha Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Jain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar

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Page 237
________________ २१२ निर्मग्य-प्रवचन भावार्थ:-हे गौतम ! देव चार प्रकार के होते हैं। उन्हें तू सुन । (१) भवनपति (२) वाणच्यन्तर (३) ज्योतिषी और (४) वैमानिक । भवनपति इस पृथ्वी से १०० योजन नीचे की ओर रहते हैं। सामन्यातर १. योजन नीचे रहते हैं । ज्योतिषी देव ७६० योजन इस पृथ्वी से ऊपर की ओर रहते है । परन्तु वैमानिक देव तो इन ज्योतिषी देवों से भी असंख्य योजन ऊपर रहते हैं। मूल:--दसहा उ भवणवासी, ___अट्टहा वणचारिणो । पंचविहा जोइसिया; दुविहा बेमाणिया तहा ।।१५।। छायाः-दशधा तु भवनवासिना, अष्टधा वनचारिणः । पञ्चविधा ज्योतिष्काः, द्विविधा वैमानिकास्तथा ।।१५।। अषयाः -हे इन्द्रभूति ! (मवणबासी) भवनपति देव (सहा) दस प्रकार के होते है । और (वणचरिगो) प्राणव्यातर (अट्टहा) आठ प्रकार के हैं। (जोइसिया) ज्योतिषी (पंचविहा) पांच प्रकार के होते हैं। (तहा) वैसे ही (वेमाणिया) दैमानिक (दविहा) दो प्रकार के हैं। भावार्थ:-हे गौतम ! मधनपति देव दश प्रकार के हैं। वाणध्यन्तर आठ प्रकार के हैं और ज्योतिषी पांच प्रकार के हैं। वैसे ही वैमानिक देव मी दो प्रकार के हैं । अब भवनति के दश भेद कहते हैं । मूलः--असुरा नागसुवण्णा, विज्जू अग्गी वियाहिया । दोवोदहि दिसा वाया, थणिया भवणवासिणो ।।१६। छाया:-असुरा नागा: सुवर्णाः, विद्युतोऽग्रयो व्याख्याता: । द्वीपा उदधयो दिशो वायवः, स्तनिता भवनवासिन: ।।१।।

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