Book Title: Nirgrantha Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Jain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar

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Page 250
________________ मोक्ष-स्वरूप २२५ सासणं) शिक्षा को (पि) भी (भियं) हितकारी समझता है, और (मूढाणं) मूर्ख, "अविनीत" (खतिसोहिकर) क्षमा उत्पन्न करने वाला, तथा आत्म-शुद्धि करने बाला, ऐसा जो (पय) जान रूप पद (त) उसको श्रवण कर (नेस) देष युत (होम) हो जाता है। भावार्थ:-हे गौतम ! जिसको किसी प्रकार की चिन्ता मय नहीं है, ऐसा जो तत्त्वज्ञ, विनयवान महानुभाव अपने बड़े-बूढ़े गुरुजनों की अमूल्य शिक्षाओं को कठोर शब्दों में भी श्रवण करके उन्हें अपना परम हितकारी समझता है । और जो अविनीत मूर्ख होते हैं, वे उनको हितकारी और श्रवणसुखद शिक्षाओं को सुन कर द्वेषानल में जल भरते हैं । मल:--अभिक्खण कोही हवइ, पबंधं च पकूदई । मेत्तिज्जमाणो वमइ, सुय लद्धू ण मज्जई ॥६॥ अवि पावपरिक्वेवी, अवि मित्तेसु कृप्पई । सुप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे भासई पावगं ॥७॥ पइण्णवाई दुहिले, थद्धे लुद्ध अणिग्गहे । असंविभागी अवियत्ते, अविणीए त्ति वुच्चई ।।८।। छाया:-अभीक्ष्णं क्रोधी भवति, प्रबन्धं च प्रकरोति । मैत्रीयमाणो वमति, श्रुतं लब्ध्वा माद्यति ।।६।। अपि पापपरिक्षेपी, अपि मिश्रेभ्य: कुप्यति । सुप्रियस्यापि मित्रस्य, रहसि भाषत पापकम् ।।७।। प्रकीर्णवादी द्रोहशीलः, स्तब्धो लुब्धोऽनिग्रहः । असंविभाग्यनीतिकरः, अविनयीतत्युच्यते ।।८।। अग्णयार्थ-हे इन्द्रभूति ! (अगिवलणं) बार-बार (कोही) कोष युत (हबर) होता हो (च) और सदर (पबंध) कलहोत्पादक कथा ही (पकुब्बई) करता हो (मैत्तिज्जमाणो) मंत्रीभाव को (वमई) वमन करे (सुर्य) श्रुतज्ञान को (लब्रूण) पाकर (मज्जई) मद करे (पावपरिकलेबी) बड़े-बूढ़े व गुरुजनों की न कुछ मूल को भी निषा रूप में करता (अवि) ही रहे (मित्तेसु) मित्रों पर

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