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निग्रंप-प्रवचन
छाया:-येषां तु विपुला शिक्षा, मूलक तेऽतिकान्ताः ।
शीलवन्तः सविशेषाः, अदीना यान्ति देवत्वम् ।।२७।। अन्वयार्थ:---हे इण्ट्रभूति ! (जेसि) जिन्होंने (विउला) अत्यन्त (सिक्खा शिक्षा का सेवन किया है । (ते) वे (सोलर्वता) सदाचारी (सीसेसा) उत्तरोत्तर गुणों की वृद्धि करने वाले (अवीणा) अदीन वृत्तिवाले (मूलियं) मूल धन रूप मनुष्य-मव को (अइस्थिया) उल्लंघन कर (देवयं) देव लोक को (जति)
भावार्थ:-हे गौतम ! इस प्रकार के देव लोकों में वे ही मनुष्य जाते हैं जो सदाचार रूप शिक्षाओं का अत्यन्त सेवन करते हैं। और त्याग धर्म में जिनको निष्ठा दिनोंदिन बढ़ती ही जाती है। वे मनुष्य, मनुष्य-भव को त्यागकर स्वर्ग में जाते हैं । मुल:--विसालिसेहिं सीलेहि, जक्खा उत्तरउत्तरा।
महासुक्का वदिपंता, मण्णता अपुणच्चवं ।।२८1 अप्पिया देवकामाणं, कामरूवविविणो।
उड्ढं कप्पेसु चिट्ठति, पुव्वा वाससया बहू ॥२६॥ छाया:-विसदृशः शीलः, यक्षा उत्तरोत्तराः ।
महाशुक्ला इव दीप्यमानाः, मन्यमाना अपुनश्चंवम् ।।२८।। अपिता देवकामान्, कामरूपवैक्रयिणः ।
ऊध कल्पेषु तिष्ठन्ति. पूर्वाणि वर्ष शतानि बहूनि ॥२६॥ रूप मनुष्य जन्म ही को प्राप्त होती हैं । परन्तु जो आत्मा अपना वश चलते सम्पूर्ण हिंसा, भूठ, चोरी, दुराचार, ममत्व आदि का परित्याग करके अपने स्याग धर्म में वृद्धि करती जाती हैं। वे सांसारिक सुख की दृष्टि से मनुष्य-मक रूपो मूल पूजी से भी बढ़ कर देव-योनि को प्राप्त होती हैं। अर्थात् स्वर्ग में जाकर वे आत्माएं जन्म धारण करती हैं और वहाँ नाना भांति के सुखों को भोगती हैं।