________________
निथ-प्रवचन
इन्द्रियों को वश में करना । मह छ: प्रकार का (बझो) बाह्य (तयो) तप (होइ) है। ___भावार्थ:-हे गौतम ! एक दिन, दो दिन यों छः छ: महीने तक भोजन का परित्याग करना, या सर्वथा प्रकार से मोजन का परित्याग करके संधारा कर ले उसे अनशन तप कहते हैं। भूख सहन कर फुष्ट कम खाना, उसको ऊनोदरी तप कहते हैं । अनैमित्तिक मोजी होकर नियमानुकूल माग करके भोजन खाना वह भिक्षाचर्या नाम का तप है, घी, दूध, दही, तेल और मिष्टान आदि का परित्याग करना, यह रस परित्याग तप है । शीत व ताप आदि फो सहन करना काय क्लेश नाम का तप है। और पांचों इन्द्रियों को वश में करना एवं क्रोध, मान, माया, लोभ पर विजय प्राप्त करना, मन-वचन-काया के असम योगों को रोकना यह छठा संलीनता तप है। इस तरह बाह्य तप के द्वारा आत्मा अपने पूर्व संचित कर्मों का क्षय कर सकती है। मुल:-पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ ।
झाणं च विउस्सग्गो, एसो अभितरो तवो ।।१३।। छाया:--प्रायश्चित्तं विनय:, वैयावृत्यं तथैव स्वाध्यायः ।
ध्यानं च व्युत्सर्गः, एतदाभ्यन्तरं तप: ।।१३।। भग्वार्थ:-हे इन्द्रभूति ! आभ्यन्तर तप के छः भेद यों हैं। (पायच्छित्त) प्रायश्चित्त (विणओ) विनय (वेयावच्च) वयावृत्य (तहेब) बसे हो (सज्झाओ) स्वाध्याय (शाणो) ध्यान (च) और (विउत्सम्गो) व्युत्सर्ग (एसो) यह (अन्मितरो) आम्यन्तर (तवो) तप है। ___ भावार्थ:--हे आर्य ! यदि भूल से कोई गलती हो गयी हो तो उसकी आलोचक के पास आलोचना करके शिक्षा ग्रहण करना, इसको प्रायश्चित्त तप कहते हैं। विनम्र मावों मय अपना रहन-सहन बना लेना, यह विनय तप कहलाता है । सेवाधर्म के महत्व को समझकर सेवाधर्म का सेवन करना
यावत्य नामक तप है, इसी तरह शास्त्रों का मननपूर्वक पटन-पाठन करना स्वाध्याय तप है । शास्त्रों में बताये हुए तत्त्वों का बारीक दृष्टि से मननपूर्वक
Giving up food and water for some time or permanently.