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आवश्यक कृत्य
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अज्ञानपूर्वक है। इस प्रकार मरने से अनेक जन्म और मरणों की वृद्धि के सिवाय और कुछ नहीं होता है। और जो मर्यादा के विरुद्ध अपने जीवन को कलुषित करने वाली सामग्री ही को प्राप्त करने के लिये रात-दिन जुटा रहता है, ऐसे पुरुष की आयुष्य पूर्ण होने पर भी उसका मरण आत्म-हत्या के समान ही है। मूल:-अह पंचहि ठाणेहि, जहि सिक्खा न लगभई ।
थंभा कोहा पमाएणं, रोगेणालस्सएण य ॥८।। छाया:--अथ पञ्चभिः स्थानः, य: शिक्षा न लभ्यते ।
स्तम्भात क्रोधात प्रमादेन, रोगेणालस्येन च ।।८।। अग्यपार्यः-हे इन्द्रभूति । (अह) उसके बाद (जहि) जिन (पंचहि) पांच (गणेहि ) कारणों से (सिक्खा) शिक्षा (न) नहीं (लब्मई) पाता है, वे यों हैं । (मा) मान से (कोहा) क्रोध से (पमाएणं) प्रमाद से (रोगेणामस्सएगय) रोग से और आलस से।
भावार्थ:-हे आर्य ! जिन पौष कारणों में इस आत्मा को ज्ञान प्राप्त नहीं होता है, वे यों है :-क्रोध करने से, मान करने से, किये हुए कण्ठस्थ जान फा स्मरण नहीं करके नवीन ज्ञान सीखते जाने से, रोगी अवस्था से और बालस्य से । मूल:- अह अट्टहिं ठाणेहिं, सिक्खासीले त्ति वुच्चई ।
अस्सिरे सया दंते, न य मम्ममुदाहरे ।।६।। नासीले न विसीले अ, न सिआ अइलोलुए।
अक्कोहणे सच्चरए, सिक्खासीले ति बुच्चई ॥१०॥ छाया:-अथाष्टभिः स्थानः, शिक्षाशील इत्युच्यते ।
अहसनशील: सदा दान्तः, न च मर्मोदाहर: ।।६।। नाशीलो न विशोलः, न स्यादति लोलुपः । अकोधन: सत्यरतः, शिक्षाशील इत्युच्यते ॥१०॥