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निय-प्रवचन
मूल:--नो चेव ते तत्थ मसीभवति,
ण मिज्जती तिब्वाभिवेयणाए । तमाणुभागं अणुवेदयंता,
दुक्खंति दुक्खी इह दुक्कडेणं ।।८।। छाया:- नो चैव ते तत्र मषीभवन्ति, न प्रियन्ते तीव्राभीवेदनाभिः ।
तदनुभागमनुवेदयन्तः, दुःखयन्ति दुःखिन इह दुष्कृतेन ||८||
अन्वयार्थः -- हे इन्द्रभूति ! (तस्य) नरक में (ते) ये नारकीय जीव पकाने से (नो वेव) नहीं (मसी भवंति) भस्म होते हैं । और (तिब्वाभिवेयणाए) तीव्र वेदना से (न) नहीं (मिजति) मरते है। (दुसखी) वे दुखी जोव (दुक्कडेणं) अपने किये हुए दुष्कर्मों के द्वारा (तमाणुमार्ग) उसके फल को (अणुवंदयंता) भोगते हुए (दुक्खंति) कष्ट उठाते हैं ।
भावार्थः --हे गौतम ! नारकीय जीव उन परपाधामी देवों के द्वारा पकाये जाने पर न तो भस्मीभूत ही होते हैं और न उस महान् भयानक छेदन-भेदन तथा ताडन आदि ही से मरते हैं। किन्तु अपने किये हुए दुष्कर्मों के फलों को भोगते हुए बड़े कष्ट से समय बिताते रहते हैं।
मूल:--अच्छी निमिलियमेत्तं,
नत्थि सुहं दुक्खमेव अणुबद्ध । नरए नेरइयाणं,
अहोनिसं पच्चमाणाणं ॥६।। छाया:-अक्षिनिमीलितमात्र, नास्ति सुखं दुःखमेवानुबद्धम् ।
नरके नैरयिकाणाम्, अनिशं पच्यमानानाम् ।।६।। सम्वयार्थ:-है इन्द्रभूति ! (अहोनिसं) रात बिन (पच्चमाणाण) पचते हुए (नरक्ष्याग) नारकीय जीवों को (नरए) नरक में (अच्छी) आँख (निमि