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नरक-स्वर्ग-निरूपण
२०६ लियमेत) टिमटिमावे इतने समय के लिये मी (सुह) सुख (नत्यि) नहीं है। क्योंकि (दुक्खमेव) दुःख ही (अणुबद्ध) अनुबद्ध हो रहा है ।
भावार्थ:-हे गीत ! सदा कष्ट उठाते हुए नारकीय जीवों को एक पल भर मी सुख नहीं है । एक दुख के बाद दूसरा दुष उनके लिये तैयार रहता है। मूल:-~-अइसीयं अहउपह,
अइतण्हा अइवखुहा । अईभयं च नरए नेरयाणं,
दुक्ख सयाई अविस्सामं ।।१०।। छाया:-अतिशीतम् अत्युष्णं, अतितृषाऽति क्षुधा ।
अतिभयं च नरके नरयिकाणाम्, दु:खशतान्यविश्रामम् ॥१०॥ भाषचार्य:-हे इन्द्रभूति ! (नरए) नरक में (नेरयाणे) नारकीय जीवों को (अइसीय) अति शीत (अइउहं) अति उष्ण (मइतण्हा) अप्ति तृष्णा (अइक्षुहा) अति भूख (च) और (अई मयं) अति मय (दुक्खसयाई) संकड़ों दुख (अविस्लाम) विश्राम रहित भोगना पड़ता है।
भावार्थ:-हे गौतम ! नरक में रहे हम जीवों को अत्यन्त ठह उष्ण भूख तृष्णा और मय आदि सैकड़ों दुःख एक के बाद एक लगातार रूप से कृत-कर्मों के फल रूप में भोगने पड़ते हैं। मूलः-जं जारिस पुव्वमकासि कम्म,
तमेव आगच्छति संपराए । एगेतदुक्खं भवमज्जणित्ता,
बेदंति दुक्खी तमणंतदुक्खं ॥११॥ छाया:-यत्यादृशं पूर्वमकार्षीत् कर्म,
तदेवागच्छति सम्पराये । एकान्तदुःखं भव मर्जयित्वा,
वेदयन्ति दुःखिन स्तमनन्तदुःखम् ॥११॥