Book Title: Nirgrantha Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Jain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar

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Page 227
________________ २०२ निग्रंग्य-प्रवचन अम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जो) जो मनुष्य (तसेसु) स (य) और (यावरेसु) स्थावर (सब्वभूएसु) समस्त प्राणियों पर (समो) सममाव रखने वाला है। (सस्स) उसके (सामाझ्य) सामायिक (होइ) होती है (इइ) ऐसा (कैथली) वीतराग ने (मासियं) कहा है। भावार्थ:-हे गौतम ! जिस मनुष्य का हरी वनस्पति आदि जीवों पर तथा हिलते-फिरते प्राणी मात्र के कार समभाव है अर्थात् सूई चुमोने से अपने को कष्ट होता है ऐसे ही कष्ट दूसरों के लिए भी समझता है। बस, उसी की सामायिक होती है ऐसा वीतरागों ने प्रतिपादन किया है । इस तरह सामायिक करने वाला मोक्ष का पथिक बन जाता है । मूल:--तिण्णिय सहस्सा सत्त सयाई, तेहुरिं च ऊसासा ! एस मुहत्तो दिट्रो, सन्वेहि अणतनाणीहि ॥२०॥ छाया:-त्रीणि सहस्राणि सप्तशतानि, त्रिसप्ततिश्च उच्छ्वासः । एषो मुहत्तों दृष्टः, सर्वैरनन्तज्ञानिभिः ॥२०॥ सम्पयार्य:-है इन्द्रभूति ! (तिणियसहस्सा) तीन हजार (सत्तसथाई) सात सौ (च) और (तेहत्तरि) तिहसर (मसासा) उच्छ्वासों का (एस) यह (मुहत्तो) मुहूर्त होता है। ऐसा (सध्वहिं) सभी (अर्थतनाणीहि) अनन्त ज्ञानियों के द्वारा (दिट्टो) देखा गया है । भावार्थ:-हे गौतम ! ३७७३ तीन हजार सात सौ तिहत्तर उच्छ्वासों का समूह एक मुहूर्स होता है । ऐसा समी अनन्तज्ञानियों ने कहा है । ॥ इति षोडशोऽध्यायः ।।

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