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निर्गम्य-प्रवचन छाया:-स्पर्शषु यो गृद्धिमुपैति तीवां,
___ अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम् । रागातुरः शीतजलावसनः
ग्राहा गृहीतो महिष इवारण्ये ॥१८॥ मन्वयार्थ:-- हे इन्द्रभूति ! (4) जैसे (रणे) अरण्य में (सीयबलावसाने) शीतजल में बैठे रहने का प्रलोभी ऐसा जो (रागाउरे) रागातुर (महिसे) भैसा (गाहग्गहीण) मगर के द्वारा पकड़ लेने पर मारा जाता है, से ही (गो) मनुष्य (फासस्स) त्वचा विषयक विषय के (गिद्धि) गृद्धि पन को (उवेइ) प्राप्त होता है (से) वह (अकालिअं) असमय ही में (तिव्य) शीघ्र (विणास) विनाश को (पावइ) पाता है।
भावार्थ:- जैसे बड़ी भारी नदी में स्वधेष्ट्रिय के वशवर्ती हो कर और शीतल जल' में बैठकर आनन्द मानने वाला वह रागातुर मैसा मगर से अब घेरा जाता है, तो सदा के लिए अपने प्राणों से हाथ धो बैठता है। ऐसे ही जो मनुष्य अपनी स्वयेन्द्रिय जन्य विषय में लोलुप होता है, वह शीघ्र ही असमय में नाश को प्राप्त हो जाता है ।
हे गौतम ! जब इस प्रकार एक-एक इन्द्रिय के वशवर्ती होकर भी ये प्राणी अपना प्राणान्त कर बैठते हैं, तो भला उनकी क्या गति होगी जो पांचों इन्द्रियों को पाकर उनके विषय में लोलुप हो रहे हैं ! मतः पाँचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना ही मनुष्य मात्र का परम कर्त्तव्य और श्रेष्ठ धर्म है।
॥ इति पंचदशोऽध्याय: ।।