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वैराग्य-सम्बोधन
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उत्पत्ति हो हो नहीं सकती । अतः भूतकाल में भी पिता था, ऐसा अवश्य मानना होगा। इसी तरह भूत और भविष्य काल में नरक स्वर्ग आदि के होते वाले सुख-दुख भी अवश्य हैं। कर्मों के शुभाशुभ फलस्वरूप नरक स्वर्गादि नहीं है, ऐसा जो कहता है, उसका सम्यक्ज्ञान मोहवश किये हुए कर्मों से ढँका हुआ है ।
मूलः -- गारं पि अ आवसे नरे अणुपुव्वं पाणेहि संजए । समता सव्वत्थ सुब्वते,
देवाणं गच्छे सलोगयं ॥ ६ ॥
छाया:- अगारमपि चावसन्नर, आनुपूर्व्या प्राणेषु संयतः । समता सर्वत्र सुव्रतः, देवानां गच्छेत्सलोकताम् ॥६॥
अन्वयार्थः -- हे पुत्रो ! ( गारं पि अ) घर में ( आव से ) रहता हुआ (नरे) मनुष्य भी ( अणुपुष्वं ) जो धर्म श्रवणादि अनुक्रम से (पाणेहि प्राणों को (संजए) यतना करता रहता है (सव्वत्य ) सब जगह (समता ) समभाव है जिसके ऐसा ( सुते ) सुव्रतवान् गृहस्थ भी (देवा) देवताओं के ( सलोगथं ) लोक को ( गच्छे ) जाता है ।
भावार्थ:- हे पुत्रो ! जो गृहस्थावास में रह कर भी धर्म श्रवण करके अपनी शक्ति के अनुसार अपनों तथा परायों पर सब जगह समभाव रखता हुआ प्राणियों की हिंसा नहीं करता है वह गृहस्थ भी इस प्रकार का व्रत अच्छी तरह पालता हुआ स्वर्ग को जाता है। भविष्य में उसके लिए मोक्ष भी निकट ही है ।
॥ श्रीसुधर्मोवाच ।।
मूल: --- अभविसु पुरा वि भिक्खुवो,
आएसा वि भवंति सुव्वता । एयाई गुणाई आहु ते. कासवस्त अणुधम्मचारिणो ॥ १० ॥