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वैराग्य-सम्बोधन
मूल:----जे पारिभवई परं जणं,
संसारे परिवत्तई महं । अदु इंखिणिया उ पाविया,
इति संखाय मुणी ण मज्जई ॥६॥ छाया:-य: परिभवति परं जनं,
संगारे. परितार्दते महत् ! अत इंखिनिका तु पापिका,
इति संख्याय मुनिनं माद्यति ॥६॥ अन्धयार्थ:-हे पुत्रो ! (जे) जो (पर) दूसरे (जणं) मनुष्य को (पारिभवई) अवज्ञा से देखता है, वह (संसारे) संसार में (मह) अत्यन्त (परिवत्तई) परिभ्रमण करता है (अदु) इसलिए (पाविया) पापिनो (इंखिणिया) निदा को (इति) ऐसी (संखाय) जानकर (मुणो) साषु पुरुष (ण) नहीं (मआई) अभिमान करे।
भावामः-है परो । जो मनष्य अपने से जाति, कूल, बल, रूप आदि में न्यून हो, उसकी अवज्ञा या निन्दा करने से, वह मनुष्य दीर्घकाल तक संसार में परिचमण करता रहता है। जिस वस्तु को पाकर निन्दा की थी, वह पापिनी निन्दा उससे भी अधिक होनावस्था में पटकाने वाली है। ऐसा जानकर साधु जन न सो कभी दूसरे की निन्दा ही करते हैं, और न, पायी हुई वस्तु ही का कमी गर्व करते हैं। मूल:--जे इह सायाणुगनरा,
अज्झोबबन्ना कामेहि मुच्छिया। किवणेण समं पब्भिया,
न विजाणति समाहिमाहितं ॥७॥ छाया:-य इह सातानुगनरा, अध्युपपन्ना: कामैच्छिताः ।
___ कृपणेन समं प्रगल्भिताः, न विजानन्ति समाधिमाख्यातम् ।।७।।