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॥ॐ॥
निर्ग्रन्थ-प्रवचन (अध्याय ग्यारहवा) भाषा-स्वरूप
॥ श्रीभगवानुवाच ।। मूल:---जा य सच्चा अवत्तवा, सच्चामोसा य जा मुसा ।
जा य बुद्धेहिणाइण्णा, न तं भासिज्ज पनवं ॥ १।।
छाया:—या च सत्याऽवक्तध्या, सत्याभूषा च या मुषा ।
या च बुद्ध चीर्णा, न ता भाषेत प्रज्ञावान् ||१||
अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जा) जो (सध्चा) सत्य माषा है, तदपि वह (अवत्तब्वा) नहीं बोलने योग्य (य) और (जा) जो (सच्चामोसा) कुछ सत्य कुछ असरम ऐसी मिश्रित भाषा (य) और (मुसा) झूठ, इस प्रकार (आ) जो माषाएं (बुद्धेहि) तीथंकरों द्वारा (अणाइण्णा) अनाचीर्ण हैं (तं.) उन भाषाओं को (पन्नव) प्रजावान् पुरुष (न मासिज्ज) कभी नहीं बोलते ।।
भावार्थ:-हे गौतम ! सत्य गाषा होते हुए भी यदि सावध है तो वह बोलने के योग्य नहीं है, और कुछ सत्य कुछ असत्य ऐसी मिश्रित माषा तथा बिलकुल असत्य ऐसी जो भाषाएं हैं जिनका कि तीर्थंकरों ने प्रयोग नहीं किया
और बोलने के लिए निषेध किया है, ऐसी भाषा बुद्धिमान् मनुष्य को कमी नहीं बोलनी चाहिये । मूल:--असच्चमोसं सच्चं च, अणबज्जमकक्कसं ।
समुप्पेहमसं दिखें, गिरं भासिज्ज पनवं ॥२।।