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मूल:- तिष्णो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ ।
अभितुर पारं गमित्तए,
समयं गोयम ! मा पमायए ||२८||
"
छाया:- तीर्णः खत्वस्यर्णवं महान्तं किं पुनस्तिष्ठसि तीरमागतः । अभिवरस्व पारं गन्तुं समयं गौतम ! मा प्रमादीः ||२६||
अन्वयार्थः - ( गोयम ! )
(मह) वा (अपणी बुद्र (हिष्ण सि) मानो तू पार कर गया ( पुणे ) फिर ( तौरमागओ ) किनारे पर आया हुआ (क) क्यों (चिसि ) रुक रहा है । अतः (पारं ) परले पार ( गमितए) जाने के लिए ( अभितुर ) शीघ्रता कर, ऐसा करने में (समय) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद मत कर ।
भावार्थ:- हे गौतम! अपने आप को संसार रूप महान् समुद्र के पार गया हुआ समझ कर फिर उस किनारे पर ही क्यों रुक रहा है ? परने पार होने के लिए अर्थात् मुक्ति में जाने के लिए शोधता कर ऐसा करने में हे गौतम ! तू क्षण मर का भी प्रमाद मत कर ।
मूल:-- अकलेवरसेणिसूसिया,
सिद्धि गोयम ! लोयं गच्छसि । खेवं च सिवं अणुत्तरं,
समयं गोयम ! मा पमायए ||२६|
नियंग्य-प्रवचन
श्रेणिमुच्छित्य,
सिद्धि गौतम ! लोकं गच्छसि । शिवमनुत्तरं,
समयं गौतम ! मा प्रमादीः ||२६||
छाया:- अकलेवर
क्षेमं च