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कषाय स्वरूप
मिअं गहाय,
मच्चू नरं नेइ हु अन्तकाले ।
न तस्स माया व पिया व भाया, कालम्मि तम्मंसहरा भवन्ति ॥ २३ ॥
मूलः -- जहेह सीहो व
छाया -- यह सिंह इव मृगं गृहीत्वा, मृत्युनंरं नयति ह्यन्तकाले । न तस्य माता वा पिता वा भ्राता,
काले तस्यांशधरा भवन्ति ||२३||
अन्वयार्थः इन्द्रभूति ! ( इह ) इस संसार में (जहा) जैसे ( सीहो) सिंह (मिश्र) मृग को (गाय) पकड़ कर उसका अन्त कर डालता है (व) वैसे ही ( मच्चू) मृत्यु (ड) निश्चय करके ( अन्तकाले ) आयुष्य पूर्ण होने पर (नर) मनुष्य को (इ) परलोक में ले जाकर पटक देती है । (कालम्मि) उस काल में ( माया ) माता (खा ) अथवा (पिआ ) पिता (व) अथवा ( माया ) भ्राता ( तम्मंसहरा ) उसके दुःख को अंश मात्र मी बँटाने वाले (न) नहीं (भवति)
होते हैं ।
तं
भाषार्थ :- हे आर्य ! जिस प्रकार सिंह भागते हुए मृग को पकड़ कर उसे मार डालता है। इसी तरह मृत्यु भी मनुष्य का अन्त कर डालती है। उस समय उसके माता-पिता- माई आदि कोई भी उसके दुःख का बंटवारा करके भागीदार नहीं बनते । अपनी निजी आयु में से प्रायु का कुछ भाग दे कर मृत्यु से उसे बचा नहीं सकते हैं ।
मूलः - इमं च मे अत्थि इमं च नत्थि
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इमं च मे किच्चमिमं अकिच्चं । लालप्यमाणं,
एवमेवं
हरा हरंति त्ति कहं पमाए ||२४||