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कषाय स्वरूप
अर्थ:-- हे इन्द्रभूति ! ये नास्तिक लोग (कायसा ) काय से ( वायसा ) वचन से ( मते) गर्वान्वित होने वाला (वित्ते ) वन में (य) और (इत्थम्) स्त्रियों में (गिद्ध ) आसक्त हो वह मनुष्य (दुहओ) राग द्वेष के द्वारा ( मलं) कर्म मल को (संचिs) इकट्ठा करता है (य) जैसे ( सिसुणागु) शिशुनाग "अलसिया" (मट्टि) मिट्टी से लिपटा रहता है ।
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भावार्थ :- हे आर्य ! मन, वचन और काया से गर्व करने वाले वे नास्तिक लोग घन और स्त्रियों में आसक्त होकर रागद्वेष से गाढ़ कर्मों का अपनी आत्मा पर लेप कर रहे हैं। पर उन कर्मों के उदय काल में, जैसे अलसिया मिट्टी से उत्पन्न हो कर फिर मिट्टी ही से लिपटाता है, किन्तु सूर्य की आतापना से मिट्टी के सूखने पर वह अलसिया महान कष्ट उठाता है, उसी तरह वे नास्तिक लोग भी जन्म-जन्मान्तरों में महान कष्टों को उठावेंगे |
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मूल:- तओ पुट्टो आयंकेण गिलाणो परितप्पड़ । पीओ परलोगस्स; कम्माणुप्पेहि अप्पणो ॥ २० ॥
छाया:-- ततः स्पृष्ट आतङ्केन, ग्लान: परितप्यते । परलोकात्, कर्मानुप्रेश्यात्मनः ||२०||
प्रभीत :
अश्वपार्थ :- हे इन्द्रभूति ! कर्म बाँध लेने के ( तओ) पश्चात् (आर्यकेण ) असाध्य रोगों से (पुट्ठो) घिरा हुआ वह नास्तिक ( गिलाणो ) ग्लानि पाता है और (परलोमस्स) परलोक के मय से (पीओ) डरा हुबा ( अपणो ) अपने किये हुए (कम्माणुहि ) कर्मों को देख कर (परित पद्द) खेद पाता है ।
भावार्थ :- हे गौतम! पहले तो ऐसे नास्तिक लोग विषयों के लोलुप हो कर कर्म बांध लेते हैं फिर जब उन कर्मों का उदय काल निकट आता है तो असाध्य रोगों से घिर जाते हैं । उस समय उन्हें बड़ी ग्लानि होती है। नरकादि के दुखों से वे बड़े घबराते है और अपने किये हुए बुरे कर्मों के फलों को देख कर अत्यन्त वेद पाते हैं ।
मूलः -- सुआ
मे नरए ठाणा, असीलाणं च जा गई ।
बालाणं कूरकम्माणं, पगाढा जत्थ वेयणा ॥ २१ ॥