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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
(अध्याय तेरहवां) कषाय-स्वरूप
॥श्री भगवानुवाच ।। मूल:--कोहो अ माणो अ अणिग्गहीआ,
माया अ लोभो अ पवड्ढमाणा। चत्तारि एए कसिणा कसाया,
सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स ॥१।। छाया:--- क्रोधश्च मानश्चातिगृहीती,
___ माया च लोभश्च प्रवर्धमानी। चत्वार एते कृत्स्नाः कषायाः,
सिञ्चन्ति मूलानि पुनर्भवस्य ॥१३॥ सम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (अणिम्गहीआ) अनिग्रहीत (कोहो) क्रोध (म) और (माणो) मान (पवड्डमाणा) बढ़ता हुआ (माया) कपट (अ) और (लोभो) लोभ (एए) में (कसिणा) सम्पूर्ण (चत्तारि) पारों ही (कसाया) कषाय (पुणग्भवस्स) पुनर्जन्म रूप वृक्ष के (मूलाई) मूलों को (सिंचंति) सींचते हैं।
भावार्थ:-हे आर्य ! जिसका निग्रह नहीं किया है ऐसा क्रोध और मान तथा बढ़ता हुआ कपट और सोम ये चारों ही सम्पूर्ण कषाय पुनः-पुनः जम्मभरण रूप वृक्ष के मूलों को हरा-भरा रखते हैं । अपति क्रोध, मान, माया और लोम ये चारों ही कषाय वीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण कराने बाले हैं।