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भाषा-स्वरूप
छाया:-मुहूर्त दुःस्वास्तु भवन्ति कण्टकाः,
___ अयोमयास्तेऽपि ततः सद्धराः। वाचा दुरुक्तानि दुरुद्धराणि,
__ वैरानुबन्धीनि महाभयानि ||६॥ अग्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (अओमया) लोह निर्मित (कंटया) कांटों से (3) तो (मुहुसदुक्खा) मुहूर्त मात्र दुख (हवंति) होता है (ते वि) यह भी (तो) उस शरीर से (सुद्धरा) सुखपूर्वक निकल सकता है । परन्तु (वेराणुबंधीणि) वर को बढ़ाने वाले और (महम्मयाणि) महाभय को उत्पन्न करने वाले (बायादुरुत्ताणि) कहे हुए कठिन वचनों का (दुरुदराणि) हृदय से निकलना मुश्किल है।
भावार्थ:-हे गौतम ! लोह निर्मित कण्टक-तीर से तो कुछ समय तक ही दुःख होता है, और यह नी हारीर से अनी तरह निकाला जा सकता है। किन्तु कहे हुए तीक्ष्ण मार्मिक वचन वैर को बढ़ाते हुए नरकादि दुःखों को प्राप्त कराते हैं। और जीवन पर्यन्त उन कटु वचनों का हृदय से निकलना महान् कठिन है।
मूल:-अवण्णवायं च परंमुहस्स,
पच्चक्खओ पडिणीयं च भासं । ओहारिणि अप्पियकारिणि च, ___ भास न भासेज्ज सया स पुज्जो ॥१०॥
छाया:-अवर्णवादं च पाराङ मुस्खस्य,
प्रत्यक्षतः प्रत्यनीकां च भाषाम् । अवधारिणीमप्रियकारिणीं च,
भाषां न भाषेत् सदा स: पूज्य: ॥१०॥ अम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (परंमुहस्स) उस मनुष्य के बिना मौजूदमी में (च) और (पच्चक्खउ) उसके प्रत्यक्ष रूप में (अण्णवायं) अवर्णवाद (मास)