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आरम शुद्धि के उपाय
भावार्थ:-हे गौतम ! जो आत्मा वैराग्य अवस्था को प्राप्त नहीं हुए हैं, सांसारिक मोगों में फंसे हुए हैं, वे आतं रौद्र ध्यान को ध्याते हुए मानसिक कुभावनाओं के द्वारा अनिष्ट कर्मों का संचय करते हैं ! और जन्मजन्मान्तर दे लो इस सागर में गोता लगा। जिन आत्मायों की रग-रग में वराम्म रस मरा पड़ा है, वे सदाचार के द्वारा पूर्व संचित कर्मों को बात की बात में नष्ट कर डालते हैं । मूलः--जह रागेण कडाण कम्माणं, पावगो फलविवागो ।
जह य परिहीणकम्मा, सिद्धा सिद्धालयमुवेति ।।६।। छायाः-यथा रागेण कृतानां कर्मणाम्, पापक:फलविपाकः ।
यथा च परिहीणकर्मा, सिद्धा:सिद्धालयमुपयान्ति ॥६॥ अन्वयार्पः-हे इन्द्रभूति ! (जह) जैसे यह जीव (रागेण) राग-द्वेष के द्वारा (कडाणं) किये हुए (पागो) पाप (क्रम्माणं) कर्मों के (फचदिवागो) फलोदय को मोगता है। वैसे ही शुभ कर्मों के द्वारा (परिहीणकम्मा) कर्मों को नष्ट करने वाले जीव (सिक्षा) सिद्ध होकर (सिद्धालय) सिद्धस्थान को (उति) प्राप्त होते हैं।
भावार्थ:-हे आर्य ! जिस प्रकार यह आल्मा राग-द्वेष करके कर्म उपार्जन कर लेता है और उन कर्मों के उदय काल में उनका फल मी चखता है वैसे हो सदाचारों से जन्म-जन्मान्तरों के कृत कर्मों को सम्पूर्ण रूप से नष्ट कर डालता है। और फिर वही सिद्ध हो कर सिहालय को भी प्राप्त हो जाता है। मलः-आलोयण निरवलावे, आवईसु दधम्मया ।
अणिस्सिओवहाणे य, सिक्खा निप्पडिकम्मया ॥७।। छायाः-आलोचना निरपलापा, आपत्ती सुदृढ़धर्मता 1
अनिश्रितोपधानश्च, शिक्षा नि:प्रतिकर्मता ॥७॥ ___अन्वयार्थः-है इन्द्रभूति 1 (आलीयण) आलोचना करना (निरवलावे) की हुई आलोचना अश्य के सम्मुख नहीं करना (आवईसु) आपदा आने पर