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निम्रप-प्रवचन
भावार्थ:-हे गौतम ! उत्तम पुरुष जो होता है वह सदैव वसुधैव कुटुम्हकम् जैसी भावना रखता हा याचा के द्वारा भी यों बोलेगा कि सब ही जीव स्था छोटे और बड़े उनसे क्षमा याचता है। अतः वे मेरे अपराध को क्षमा करें | चाहे जिस जाति व कुल का हो उन सबों में मेरी मैत्री भावना है । भले ही वे मेरे अपराधी क्यों न हों, तदपि उन जीवों के साथ मेरा किसी भी प्रकार वैर-विरोध नहीं है । बस, उसके लिए फिर मुक्ति कुछ मी दूर नहीं है ।
मूल:-अगारिसामाइअंगाई सड्ढी काएण फासए ।
पोसह दुहओ पक्खं, एगराइं न हावए ।।६।। छाया:-आगारीसामायिकांगानि, श्रद्धी कायेन स्पृशति ।
पौषधमुभयोः पक्षयोः, एकरात्रं न हाययेत् ।।६।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (सड्ली) श्रमायान् (अगारि) गृहस्थी (सामाइअंगाई) सामायिक के अंगों को (काएण) काया के द्वारा (फासए) स्पर्श करे, और (दुहओं) दोनों (पखं) पक्ष को (पोसह) पोषध करने में (एगराई) एक रात्रि की भी (न) नहीं (हावए) न्यूनता करे ।
भावार्थ:-हे आर्य ! जो गृहस्थ है, और अपना गृहस्थ-धर्म पालन करता है, वह श्रद्धावान् गृहस्थ सामायिक भाव के अंगों की अर्थात् समता शान्ति आदि गुणों की मन, वचन, काया के द्वारा अभ्यास के साथ अभिवृद्धि करता रहे। और कृष्ण शक्ल दोनों पक्षों में कम से कम छ: पौषध करने में तो न्यूनता एक रात्रि की भी कमी न करे । मुल.—एवं सिक्खासमाधणे, गिहिवास वि सुब्बए ।
मुच्चई छविपवाओ, गच्छे जखसलोगयं ॥७॥ छाया:-एवं शिक्षासमापन्नः, गृहिवासेऽपि सुव्रतः ।
मुच्यते छवि पर्वणो, गच्छेद् यक्षसलोकताम् ।।७।। अन्वयार्थः-है इन्द्रभूति ! (एव) इस प्रकार (सिक्सासमावणे) शिक्षा से युक्त गृहस्थ (गिहिवासे वि) गृहबास में भी (सुब्बए) अच्छे व्रत वाला होता