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निग्रंन्य-प्रवचन।
छाया:-अहीनपञ्चेन्द्रियत्वमपि स लभते. उत्तमधर्मश्रुतिहि दुर्लभा।
कृतीथिनिषेत्रको जनी. समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।।१८।।
आपयार्थ:- (गोयम) हे गौतम ! (अहोणपंचिदियत्तं पि) पाँचों इन्द्रियों की सम्पूर्णता मी (स) वह जीव (लहे) प्राप्त करे तदपि (उत्तमधम्मसुई) ! यथार्थ धर्म का प्रवण होना (दुल्लहा) दुर्लभ है । () निश्चय करके, क्योंकि ! (जणे) बहुत से मनुज्य (कृतिस्थिनिसेवए) कुतीर्थी की उपासना करने वाले हैं। अतः (समय) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद मत कर ।
भावार्यः हे गौतम ! पांचों इन्द्रियों की सम्पूर्णता वाले को आर्य देश में | मनुष्य जन्म भी मिल गया तो अच्छे शास्त्र का श्रवण मिलना और भी कठिन है । क्योंकि बहुत से मनुष्य जो इहलौकिक सुखों को ही धर्म का रूप देने वाले हैं कुतीर्थी रूप हैं। नाम मात्र के गुरु कहलाते हैं। उनकी उपासना करने वाले हैं। इसलिए उत्तम शास्त्र श्रोता हे गौतम ! कर्मों का नाश करने में तनिक भी ढील मत कर।
मूल:--लद्धणवि उत्तमं सुई, सद्दहणा पुणरावि दुल्लहा ।
मिच्छत्तनिसेवए जणे, समयं गोयम ! मा पमायए ।।१६।।। छाया:-लब्ध्वाऽपि उत्तमां श्रुति, श्रद्धानं पुनरपि दुर्लभम् ।
मिथ्यात्वनिषेवको जनो, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।।१९।।
अन्वयार्थ:- (गोयम) हे गोतम ! (उत्तम) प्रधान शास्त्र (सुई) श्रवण (लखूण वि) मिलने पर भी (पुणरावि) पुन: (सद्दहणा) उस पर श्रद्धा होना (दुल्लहा) दुर्लभ है। क्योंकि {जणे ] बहुत से मनुष्य (मिछत्तनिसेवए) मिथ्यात्य का सेवन करते हैं। अतः (समयं ) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर ।
भावार्थ:-हे गौतम ! सप्यास्त्र का श्रवण मी हो जाय तो भी उस पर श्रद्धा होना महान् कठिन है। क्योंकि बहुत से ऐसे भी मनुष्य हैं जो सच्छास्त्र श्रवण करके भी मिथ्यात्व का बड़े ही जोरों के साथ सेवन करते हैं । अत: है श्रद्धावान् गौतम ! सिद्धावस्था को प्राप्त करने में आलस्य मत कर ।