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निर्ग्रस्य प्रवचन
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भावार्थ :- हे गौतम ! इन कामभोगों को छोड़ने में जब बुद्धिमान मनुष्य भी बड़ी कठिनाइयाँ उठाते है, तब फिर कायर पुरुष तो इन्हें सुलभता से छोड़ हो कैसे सकते है ? अतः जो शूर वीर और धीर पुरुष होते हैं, वे ही इस कामभोग रूपी समुद्र के परले पार पहुँच सकते हैं, उसी प्रकार संग्रम आदि व्रत नियमों को धारणा करने वाले पुरुष ही ब्रह्मचर्य रूप जहाज के द्वारा संसार रूपी समुद्र के परले पार पहुँच सकते हैं ।
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मूलः - उवलेवो होइ भोगे, अभोगी नोवलिप्पई । भोगी भमइ संसारे, अभोगी विष्पमुच्चई ॥ १४॥
छाया:- उपलेपो भवति भोगेषु, भोगी भ्रमति संसारे,
अभोगी नोपलिप्यते । अभोगी विप्रमुच्यते || १४ ||
अभ्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! ( भोगेसु) भोग भोगने में कर्मों का ( उवलेवो) उपलेप ( होइ ) होता है । और (अभोगी) अभोगी (नोवलिप्पई) कर्मों से लिप्त नहीं होता है । ( भोगी) विषय सेवन करने वाला (संसारे) संसार में ( ममइ ) भ्रमण करता है । और (अगोगी) विषय सेवन नहीं करने वाला (विप्पमुचाई) कर्मों से मुक्त होता है।
आत्मा कर्मों के
भावार्थ: हे गौतम! विषय वासना सेवन करने से बंधन से बँध जाती है। और उसको त्यागने से वह अलिप्त रहती है | अतः जो काम मोगों को मेवन करते हैं वे संसार चक्र में गोता लगाते रहते हैं। और जो इन्हें त्याग देते हैं वे कर्मों से मुक्त होकार अटल मुखों के धाम पर जा पहुँचते हैं ।
मूलः - मोक्खाभिकंखिस्स वि माणवस्स,
संसारभीरुस्स ठियस्स धम्मे ।
नेयारिस्सं दुत्तरमस्थि लोए,
जहित्थिओ बालमणोहराओ ||१५||