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ब्रह्मचर्यं निरूपण
मूलः - जहा किंपागफलाणं, परिणामो न सुन्दरो । एवं भुताण भोगाणं, परिणामो न सुन्दरो ॥ १२ ॥
छाया: - यथा किम्पाकफलानां परिणामो न सुन्दर: 1
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एवं भुक्तानां भोगानां परिणामो न सुन्दरः ॥ १२॥
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अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति 1 ( जहा ) जैसे (किपागफलाणं ) किंपाक नामक फलों के खाने का ( परिणामो ) परिणाम ( सुन्दरी) अच्छा ( 7 ) नहीं है, ( एवं ) इसी तरह (भुत्ताण) मोगे हुए ( भोगाणं ) भोगों का ( परिणामो) परिणाम (सुन्दरो) अच्छा (न) नहीं होता है ।
भावार्थ:-- है आर्य ! किपाक नाम के फल खाने में स्वादिष्ट, सूंघने में सुगंधित और आकार-प्रकार से भी मनोहर होते हैं। तथापि खाने के बाद वे फल हलाहल जहर का काम करते है। इसी तरह ये भोग भी भोगते समय तो क्षणिक सुख से देते हैं । परन्तु उसके परचात् ये परासी की चक्रफेरी में दुखों का समृद्र रूप हो सामने आड़े आ जाते हैं । उस समय इस आत्मा को बड़ा ही पश्चात्ताप करना पड़ता है ।
मूल:- दुपरिचया इमे कामा, तो सुजहा अधोरपुरिसेहि ।
अह संति सुब्वया साहू, जे तरंति अपरं वणिया वा ।। १३ ।। छाया:-- दु:परित्याज्या इमे कामा:, नसुत्यजा अधीरपुरुषः । अथ सन्ति सुव्रताः साधवः ये तरन्त्यतरं वणिके मंत्र || १३ ||
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अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति (इमे) ये ( कामा) कामभोग (दुपरिच्चया) मनुष्यों द्वारा बड़ी ही कठिनता से छूटने वाले होते हैं, ऐसे मोग (अधीरपुरिसेहि) कायर पुरुषों से तो (नो) नहीं (सुजा) सुगमता से छोड़े जा सकते हैं । (अ) परस्तु ( सुव्वया) सुव्रत वाले (साहू) अच्छे हैं (जे) वे (अतर) तिरने में कठिन ऐसे भव की (वा) तरह (तरंति) तिर जाते हैं ।
पुरुष जो (संति) होते समुद्र को भी ( वणियो) वणिक