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नियन्व-प्रवचन
भावार्थ:-हे गौतम! तीक्ष्ण बुद्धि से सहित हो, प्रश्न करने पर जो शान्ति से उत्तर देने में समर्थ हो, समता माव से जो धर्मकथा कहता हो. चारित्र में सूक्ष्म रीति से भी जो विराधक न हो, ताड़ने सर्जने पर क्रोषित और सत्कार करने पर गर्वाम्वित जो न होता हो, सचमुच में वही साधु पुरुष है।
मूल:—न तस्स जाई व कुलं व ताणं,
णण्णत्थ विज्जाचरणं सुचिन्न । णिक्खम से सेवइ गारिकम्म, ___ण से पारए होइ विमोयणाए ॥१४||
छायाः-न तस्य जाति, कुलं वा त्राणं,
नान्यत्र विद्या चरणं सूचीर्णम् । निष्क्रम्य सः सेवतेऽगारिकर्म,
न सः पारगो भवति विमोचनाय ॥१४॥
अरबपा-हे इन्द्रभूति ! (सुचिम्न) अच्छी तरह आचरण किये हुए (चरण) चारित्र (विज्ञा) ज्ञान के (णण्णस्थ) सिवाय (तस्स) उसके (जाई) जाति (व) और (कुलं) कुल (ताणं) शरण (न) नहीं होता है। जो (से) वह (पिक्सम) संसार प्रपंच से निकल कर (गारिकामं) पुनः प्रहस्थ कर्म (सेवइ) सेवन करता (से) वह (विमोयणाए) कर्म मुक्त करने के लिए (पारए) संसार से परले पार (ण) नहीं (होइ) होता है।
भावार्थ:-हे गौतम ! साधु होकर जाति और कुल का बो मद करता है, इसमें उसकी साघुता नहीं है । प्रत्युत वह गर्व त्राणभूत न होकर हीन जाति और कुल में पैदा करने की सामग्री एकत्रित करता है। केवल ज्ञान एवं क्रिया के सिवाय और कुछ भी परलोक में हित कारक नहीं है । और साधु होकर गृहस्थ जैसे कार्य फिर करता है वह संसार समुद्र से परले पार होने में समर्थ नहीं है।