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निग्रंन्य-प्रवचन
____भावार्ष:-हे गौतम ! तप करने से जिसका शरीर दुबल हो गया हो, इन्द्रियों का दमन करने से लोहू, मांस जिसका सूख गया हो, प्रत नियमों का सुग्दर रूप से पालन करने के कारण जिसका स्वभाव शान्त हो गया हो, उसको हम ब्राह्मण कहते हैं। मुल:-जहा पोमं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा ।
एवं अलित्त कामेहि, तं वयं बूम माहणं ।।१७।। छाया:-- यथा पद्म जले जातम्, नोपलिप्यते वारिणा ।
एवम लिप्तं कामः, तं वयम् वमो ब्राह्मणम् ॥१७॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जहा) जैसे (पोम) कमल (जले) जल में (जायं) उत्पन्न होता है तो मी (वारिणा) जल से (नोवलिप्पइ) वह लिप्त नहीं होता है (एवं) ऐसे ही जो (कामेहि) काम भोगों से (अलित) अलिप्स है (तं) उसको (वर्म) हम (माहग) बाह्मण (बूम) कहते हैं ।
भावार्थ:-हे गौतम ! जैसे कमल जल में उत्पन्न होता है, पर जल से सदा अलिप्त रहता है, इसी तरह कामभोगों से उत्पन्न होने पर भी विषयबासना सेवन से जो सदा दूर रहता है, वह किसी भी जाति व कौम का क्यों न हो, हम उसी को ब्राह्मण कहते हैं। मूलः-न वि मुडिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो ।
न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो ||१८| छाया:-नाऽपि मुण्डितेन श्रमणा, न ओंकारेण ब्राह्मणः ।
न मुनिरण्ययासेन, कुशचीरेण न तापसाः ।।१८।। अग्षयार्य:-- हे इन्द्रभूति ! (मुंडिएण) मुंडन व लोचन करने से (समणो) श्रमण (म) नहीं होता है। और (ओंकारेण) ओंकार पाट मात्र जप सेने से (वंभणो) कोई ब्राह्मण (वि) भी (न) नहीं हो सकता है। इसी तरह (रणवासेणं) अटवी में रहने से (मुणी) मुनि (न) नहीं होता है। (कुसवीरेण) दर्भ के वस्त्र पहनने से (तावसो) तपस्वी (न) नहीं होता है।