________________
ब्रह्मपर्य-निरूपण
८९ अपनी प्राण रक: सिर वह समता रहता है । सो नरहरियों को स्त्रियों के संसर्ग से अपने ब्रह्मचर्य के नष्ट होने का भय सदा रहता है । अतः उन्हें स्त्रियों से सदा सर्वदा दूर रहना पाहिए । मूलः–जहा बिरालावसहस्स मुले,
__ न सूसगाणं बसही पसत्था । एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे,
न बम्भयारिस्स खमो निवासो ।।५।। छाया:--यथा विडालावसथस्य मूले, न मूषकाणां वसति: प्रशस्ता ।
एवमेव स्त्रीनिलयस्य मध्ये, म ब्रह्मचारिणः क्षमो निवासः ।।५।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (जहा) जैसे (बिरालावसहस्स) बिलावों के रहने के स्थानों के (मूले) समीप में (मूसगाण) चूहों का (बसही) रहना (पसत्या) अच्छा-कल्याणकर (न) नहीं है, (एमेव) इसी तरह (इत्थीनिलयस्स) स्त्रियों के निवासस्थान के (मज्ञ) मध्य में (बम्मयारिस्स) ब्रह्मचारियों का (निवासी) रहना (स्लमो) योग्य (न) नहीं है। ___ भावार्थ:-है आर्य ! जिस प्रकार बिलाधों के निवासस्थानों के समीप मूहों का रहना बिलकुल योग्य नहीं अर्थात् खतरनाक है । इसी तरह स्त्रियों के रहने के स्थान के समीप ब्रह्मचारियों का रहना भी उनके लिए योग्य नहीं है । मुल: हत्थपायपडिछिन्नं, कन्ननासबिगप्पिों।
अवि वाससयं नारि, बंभयारी विवज्जए ।।६।। छायाः-हस्तपादप्रतिच्छिन्ना, कर्णनासाविकल्पिताम् ।
वर्षशतिवामापि नारी, ब्रह्मचारी विवर्जयेत ॥६॥ मम्वयार्थ:-हे इन्दभूति ! (हत्यपायपरिचिन्न) हाथ-पांव छेदे हुए हों, (कन्ननासविगप्पिक्ष) कान, नासिका विकृत आकार के हों ऐसी (वाससयं) सौ वर्ष वाली' (अवि) मी (नारि) स्त्री का संसर्ग (बंमयारी) ब्रह्मचारी (विवज्जए) छोड़ थे।