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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
चारियों के लिए निषिद्ध है। (अ) और (कूड़ा) कूजित (सइ) रुदित (गीअं) गीत (हास) हास्य वगैरह (मुत्तासिआणि) स्त्रियों के साथ पूर्व में जो कामचेष्टा की है, उसका स्मरण (च) और नित्य (पणीअं) स्निग्ध (मत्तपाण) आहार पानी एवं (अइमाय) परिमाण से अधिक (पाणमोअणं) आहार पानी का खाना पीना (च) और (इ8) प्रियकारी (गत्त भूसणं) शरीर शुश्रूषा विभूषा करना ये सब ब्रह्मचारी के लिए निषिद्ध हैं। क्योंकि {दुज्जया) जीतने में कठिन हैं ऐसे ये (काममोगा) काम माग (अत्तगवेसिस्स) आत्मगवेषी ब्रह्मचारी (नरस्स) मनुष्य के (तालउड) तालपुट (विसं) जहर के (जहा) समान हैं।
भावार्थ:-हे गौतम ! स्त्री व नपुंसक (हीजड़े) जहाँ रहते हों यहाँ ब्रह्मचारो को नहीं रहना चाहिए। स्त्रियों की कथा का कहना, स्त्रियों के आसन पर बैठना, उनके अंगोपांगों को देखना, भीत, प्रेच, टाटी के अन्तर पर स्त्री पुरुष सोते हुए हों वहाँ ब्रह्मचारी को नहीं सोना चाहिए। और जो पूर्व में स्त्रियों के सामना की है रामा मरः" , मन्त्रप्रति निष्प प्रोजन करना, परिमाण से अधिक भोजन करना एवं शरीर की शूथषा-विभूषा करना ये सब ब्रह्मचारियों के लिए निषिद्ध हैं। क्योंकि ये दुजंयी कामभोग ब्रह्मचारी के लिए तालपुट जहर के समान होते है।
मूल:-जहा कुक्कुडपोअस्स, निच्च कुललओ भयं ।
एवं खु बंभयारिस्स, इत्थीविग्गहओ भयं ।।४।। छाया:-यथा कुक्कुटपोतस्य, नित्यं कुललतो भयम् ।
एवं खलु ब्रह्मचारिण:, स्त्रीविद्महतो भयम् ।।४।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्र मूति ! (जहा) जैसे (कुक्कुडपोअस्स) मुर्गी के बच्चे को (निच्च) हमेशा (कुललओ) बिल्ली से (मयं) भय रहता है। (एवं) इसी प्रकार (स्नु) निश्चय करके (बं भयारिस्स) ब्रह्मचारी को (इस्थीविग्गहओ) स्त्री शरीर से (मयं) भय बना रहता है।
भावार्थ:-हे गौतम ! ब्रह्मचारियों के लिए स्त्रियों को विषयजनित वातासाप तथा स्त्रियों का संसर्ग करना आदि जो निषेध किया है, वह इसलिए है कि जैसे मुगीं के बच्चे को सदैव बिल्ली से प्राणवध का भव रहता है, अतः