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धर्म-निरूपण
भावार्थ:-हे गौतम ! केवल सिर मुंडाने से या लुंघन मात्र करने से ही कोई साध नहीं बन जाता है। और न ओंकार शब्द मात्र के रटने से हो कोई माह में पाकला है। तीन मेगन सम्न पदवी में निवास कर लेने से ही कोई मुनि नहीं हो सकता है। और न केवल घास विशेष अर्थात् दर्म का कपड़ा पहन लेने से कोई तपस्वी बन सकता है।
मूल:-समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो ।
नाणेण य मुणी होइ, तवेणं होइ तावसो ॥१६॥ छायाः-समतया श्रमणो भवति, ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणः ।
ज्ञानेन च मुनिर्भवति, तपसा भवति तापस: ११९|| ___ अन्वयार्थ:-है इन्द्र भूति | (समयाए) शत्रु और मित्र पर समभाव रखने से (समणो) श्रमण-साधु (होइ) होता है। (बंभचेरेण) ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने से (बंभणो) ब्राह्मण होता है (य) और इसी तरह (नाणेणं) ज्ञान सम्पादन करने से (मुणी) मुनि (होइ) होता है, एवं (तवेणं) तप करने से (तावसो) तपस्वी (होइ) होता है। ___ भावार्थ:-हे गौतम ! सर्व प्राणी मात्र, फिर चाहे वे शत्रु जैसा बत्तवि करते हों या मित्र जैसा, ब्राह्मण, श्वःपाक, चाहे जो व्यक्ति हो, उन सभी को समदृष्टि से जो देखता हो, वही साधु है । ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला किसी भी कौम का हो, वह ब्राह्मण ही है, इसी तरह सम्यक् जान सम्पादन कर के उसके अनुसार प्रवृत्ति करने वाला ही मुनि है । ऐहिक सुखों की वांछा रहित बिना किसी को कष्ट दिये जो तप करता है, वही तपस्की है ।
मूल:-कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ ।
कम्मुणा वइसो होइ, सुबो हवइ कम्मुणा ॥२०॥
छाया:-कर्मणा ब्राह्मणो भवति, कर्मणा भवति क्षत्रियः ।
वैश्यः कर्मणा भवति, शूद्रो भवति कर्मणा ॥२०॥