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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
यदि इस प्रकार गृहस्य का धर्म पालन करते हुए कोई उत्तीर्ण हो जाय और वह फिर आगे बढ़ना चाहे तो इस प्रकार प्रतिमा धारण करें गृहस्थ जीवन को सुशोभित करे ।
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मूलः -- दंसणवयसामाइयपो सहपांडेमा य बंभ अचित्त । आरंभपेस उदि वज्जए समणभूए य ||४||
छाया: - दर्शनव्रत सामायिकपौषघप्रतिमा व ब्रह्म अचित्तम् । आरंभप्रेषणोद्दिष्टवर्जकः,
श्रमणभूतश्च ||४||
अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! ( दंसणवयसामाहय ) दर्शन, व्रत, सामायिक, पडिमा ( ) और ( पोसह) पौषध (य) और (पडिमा ) पाँचवों में पाँच बातों का परित्याग वह करे (बंभ ) ब्रह्मचयं पाले (अचित्ते ) सचित का भोजन न करे (आरंभ) आरंभ त्यागे (पेस) दूसरों से आरम्भ करवाने का त्याग करना, ( उद्दिट्ठवज्जर) अपने लिए बनाये हुए भोजन का परित्याग करना (य) और अन्तिम पहिमा में (समणभूए) साधु के समान वृत्ति को पालना ।
भावार्थ:- हे गौतम! गृहस्थधर्म की ऊँची पायरी पर चढ़ने की विधि इस प्रकार है: - पहले अपनी श्रद्धा की ओर दृष्टिपात करके वह देख ले, कि मेरी श्रद्धा में कोई भ्रम तो नहीं है। इस तरह लगातार एक महीने तक श्रद्धा के विषय में ध्यानपूर्वक अभ्यास वह करता रहे। फिर उसके बाद दो मास तक पहले लिये हुए व्रतों को निर्मल रूप से पालने का अभ्यास वह करे । तीसरी पडिमा में तीन मास तक यह अभ्यास करे कि किसी भी जीव पर रागद्वेष के भावों को वह न आने दें। अर्थात् इस प्रकार अपना हृदय सामायिक मय बना ले। चौथी पडिमा में चार महीने में छः-छः के हिसाब से पौषध करे । पाँचर्थी पडिमा में पाँच महीने तक इन पाँच बातों का अभ्यास करे(१) पौषध में ध्यान करे, (२) श्रृंगार के निमित्त स्नान न करे, ( ३ ) रात्रि भोजन न करे ( ४ ) पौषध के सिवाय और दिनों में दिन का ब्रह्मचर्य पाले, ( ५ ) रात्रि में ब्रह्मचर्यं की मर्यादा करता रहे। छटी पडिमा में छः महीने तक सब प्रकार से ब्रह्मचर्य के पालन करने का अभ्यास वह करे। सातवीं परिमा में सात महीने तक सचित्त भोजन न खाने का अभ्यास करें। आठवीं परिमा में आठ महीने तक स्वत: कोई आरंभ न करे। नौवीं एजिमा में नौ महीने