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धर्म-निरूपण
शम्बयार्थः--हे छन्दमूति ! (मुहादाई) स्वार्थ रहित भावना से देने वाला व्यक्ति (दुल्लहा) दुर्लम है (3) और (मुहाजीवी) स्वाधरहित मावना से दिये हुए भोजन के द्वारा जीवन निर्वाह करने वाले (वि) भी (दुस्लहा) दुर्लम है, (मुहादाई) ऐसा देने वाला और (मुहामीवी) ऐसा लेने वाला (दो वि) दोनों ही (सोग्गइं) सुगति को (गच्छंति) जाते हैं। __ भाषा..... म ! 1कार कि तुम प्राप्त होने की स्वार्थ रहित भावना से जो दान देता है, ऐसा व्यक्ति मिलना दुर्लभ ही है । और देने पाले का किसी भी प्रकार सम्बन्ध व कार्य न करके उससे निःस्वार्थ ही भोजन ग्रहण कर अपना जीवन निर्वाह करते हों, ऐसे महान् पुरुष भी कम हैं । अतएव बिना स्वार्थ से देने वाला मुहादाई' और निःस्पृह भाव से लेने वाला मुहाजीवी' दोनों ही सुगति में जाते हैं।
मूल:-संति एगहि भिक्खूहि, गारत्था संजमुत्तरा।
__ गारत्थेहिं य सव्वेहिं, साबो संजमुत्तरा ॥१२।। छाया:--सन्त्येकेभ्यो भिक्षुभ्यः, गृहस्था: संयमोत्तराः।
अगारस्थेभ्य: सर्वेभ्यः, साधवः संयमोत्तराः ।।१२।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (एगेहिं) कितनेक (मिक्खूहि) शिथिल साधुओं से (गारस्था) गृहस्प (संजमुत्तरा) संयमी जीवन बिताने में अच्छे (संति) होते है । (य) और (सम्वेहि) देशविरति वाले मब (पारस्थेहिं) गृहस्थों से (संजमुत्तरा) निर्दोष संयम पालने वाले श्रेष्ठ हैं।
भावार्थ-हे आर्य ! कितने शिथिलाचारी माधुओं से गृहस्थ-धर्म पालने वाले ग्रहस्थ भी अच्छे होते हैं जो अपने नियमों को निर्दोष रूप से पालन करते रहते हैं । और निर्दोष संयम पालने वाले जो साधु हैं, वे देवाविरति वाले सब गृहस्थों से बहकर हैं।
1 Giving without getting any thing in return. 2 Maintaining oneself without doing any service.