________________
४२
निग्रन्थ-प्रवचन
मूलः--जह जीवा बज्झंति,
मुच्चंति जह य परिकिलिस्संति । जह दुक्खाणं अंत,
करेंति केई अपडिबद्धा ।।४॥ छाया:-यथा जीवा बध्यन्ते, मुच्यन्ते यथा च परिक्लिश्यन्ते ।
यथा दुःखानामन्तं कुर्वन्ति' केऽपि अप्रतिबद्धाः ।।४।। अन्वयार्थ:-है इन्द्रभूति ! (जह) जैसे (केई) कई (जीया) जीव
ति) पंचते ३, से हो (मुच्चात) मुक्त मी होते हैं (य) और (जह) जैसे कर्मों की वृद्धि होने से (परिकिलिसति) महान् कष्ट पाते हैं । वैसे ही (दुक्स्नाण) दुःखों का (अन्त) अन्त मी (करेंति) कर डालते हैं । ऐसा (अपडिबद्धा) अप्रतिबद्ध विहारी नियों ने कहा है। ___ भावार्ष:- गौतम ! यही आत्मा कर्मों को बांधता है, और मही कर्मों से मुक्त मी होता है। यही आत्मा कर्मों का गान लेप करके चुःखी होता है, और सदाचार सेवन से सम्पूर्ण कमों को नाश करके मुक्ति के सुखों का सोपान मी यही आत्मा तैयार करता है । ऐसा निग्रन्यों का प्रवचन है । मूल:--अट्टदुहट्टियचित्ता जह, जीया दुक्खसागर मुवेति ।
जह वेरम्गमुवगया, कम्मसमुग्गं विहाडेंति ।।५।। छाया:-आतंदु:खातं चित्ता यथा जीवा,
दुःजीवा दुःखसागरमुपयान्ति । यथा वराग्यमुपगता,
___ कर्मसमुद्रं विधाटयन्ति ।।५।। अन्वयार्थ:-है इन्द्रभूति ! जो (जीवा) जीव वैराग्य माव से रहित हैं वे (अट्टदुट्टियचित्ता) मातं रौद्र ध्यान से युक्त चित्त वाले हो (जह) जैसे (दुक्खसागर) दुःख सागर को (जवेंसि) प्राप्त होते हैं। वैसे ही (बेस) वैराग्य को (उवगया) प्राप्त हुए जीव (कम्मसमुम्ग) कम समूह को (विहाउति) नष्ट कर डालते हैं।