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सम्यक् निरूपण
अन्वयार्थः - हे इन्द्रभूति (जाति) जन्म (च) और (बुबि) वृद्धपन को ! ( हुज्ज) इस संसार में (पास) देख कर (घ) और (भूतेहि ) प्राणियों करके (सास) साता को ( जाणे ) जान ( पडिलेह) देख ( तम्हा) इसलिये ( अतिविज्जो ) (प) गो मार्ग (कला) जान कर ( सम्मत्तदंती ) सम्यक्त्व दृष्टि वाले (पा) पाप को (ण) नहीं (करेति ) करता है ।
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भावार्थ:- हे गौतम! इस संसार में जन्म और मरण के महान् दुखों को देख और इस बात का ज्ञान प्राप्त कर कि सब जीवों को सुखप्रिय है और दुख अप्रिय है । इसलिये ज्ञानीजन मोक्ष के मार्ग को जानकर सम्यक्त्वधारी बनकर किंचित् मात्र भी पाप नहीं करते हैं ।
मूलः -- इओ बिद्ध समाणस्स, पुणो दुल्लहाओ तहच्चाओ, जे
संबोहि दुल्लहा । धम्मटुं वियागरे ॥ १३॥
छाया: - इसी विध्वंसमानस्य पुनः संबोधिदुर्लभा । ये धर्मार्थं व्याकुर्वन्ति ॥ १३॥
दुर्लभ तथा
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अन्वयार्थ :- हे इन्द्रभूति ! ( ६ओ) यहाँ से (विद्ध समाणस्स ) मरने के बाद उसको ( पुणो ) फिर (संबोहि) धर्मबोध की प्राप्ति होना ( दुल्लहा ) दुर्लभ है। उससे भी कठिन (जे) जो (म्मटु ) धर्म रूप अर्थ का ( वियागरे ) प्रकाश करता है, ऐसा ( सहच्चाओ) तथा भूत का मानव शरीर मिलना अथवा सम्यक्त्व की प्राप्ति तथा योग्य भावना का उस में आना ( दुलहाओ ) दुर्लभ है ।
भावार्थ :- हे गौतम! जो जीव सम्यक्त्व से पतित होकर यहाँ से मरता है उसको फिर धर्म बोध की प्राप्ति होना महान् कठिन है। इससे मी तथ्य धर्म रूप अर्थ का प्रकाशन जिस मानव शरीर से होता रहता है। ऐसा मनुष्य देह अथवा सम्यक्त्व की प्राप्ति के योग्य उच्च लेश्याओं ( भावनाओं) का आना महान कठिन है ।
|| इति षष्ठोऽध्यायः ॥