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सम्यक-निरूपण सूत्रों के श्रवण करने से, एक शब्द को जो बीज की तरह अनेक अर्थ बताता हो ऐसा वचन सुनने से, विशेष विज्ञान हो जाने से, विस्तारपूर्वक अर्थ सुनने से, धार्मिक अनुष्ठान करने से, संक्षेप अर्थ सुनने से, श्रुत धर्म के मननपूर्वक श्रवण करने से तत्त्वों की रुचि होने पर सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। मूलः --नस्थि चरित्तं सम्मत्तविहर्ण, दसणे उ भइअव्वं ।
सम्मत्तचरित्ताई, जुगवं पुब्बं व सम्मत्तं ।।६।। छाया:-नास्ति चारित्रं सम्यक्त्वविहीनं, दर्शने तु भक्तव्यम् ।
सम्यक्त्व चारित्र, युगपत् पूर्व वा सम्यक्त्वम् ॥६|| अन्वयार्थ:-हे इन्द्र भूति ! (सम्मत्तनिहूर्ण) सम्यक्त्व के बिना (चरित्त) चारित्र (नत्यि) नहीं है (ज) और (दसणे) दर्शन के होने पर (महसव) चारित्र मजनीय है । (सम्मत्तरिनाई) सम्यक्त्व और चारित्र (जुगवं) एक साथ भी होते हैं । (व) अथवा (सम्मत्तं) सम्मक्त्व चारित्र के (पुर्व) पूर्व मी होता है ।
भावार्थ:-हे आर्य ! सम्यक्त्व के बिना चारित्र का उदय होता ही नहीं है । पहले सम्यक्त्व होगा, फिर चारित्र हो सकता है, और सम्यक्त्व में चारित्र का भावाभाव है, क्योंकि सम्यक्त्वी कोई गृहस्थधर्म का पालन करता है, और कोई मुनिधर्म का । सम्यक्त्व और चारित्र को उत्पति एक साथ भी होती है अथमा बारिश के पहले भी सम्यक्त्व की प्राप्ति हो सकती है। मल::--नादंसणिस्स नाणं,
नाणेण विणा न होति चरण गृणा । अगुणिस्स नत्स्थि मोक्खो,
___ नत्स्थि अमुक्कस्स निव्वाणं ।।७।। छाया:-नादर्शनिनो ज्ञानम्, ज्ञानेन विना न भवन्ति चरणगुणा: ।
अगुणिनो नास्ति मोक्षः, नास्त्यमोक्षस्य... निर्वाणम् ॥७॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (अदंसणिस्स) सम्यक्त्व से रहित मनुष्य को (नाणं) ज्ञान (न) नहीं होता है। और (नाणेग) शान के (विणा) बिना