________________
पिंप्रमः
मूलः-तहिआणं तु भावाणं; सब्भावे उवएसणं 1
भावेण सद्दहतस्स; सम्मत्तां तं विआहिअं ।।४।। छायाः–तथ्यानाम् तु भावानाम् सद्भाव उपदेशनम् ।
भावेन श्रद्दयतः, सम्यक्त्वं तद् व्याख्यातम् ॥४|| मन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (समावे) सद्भावना वाले के द्वारा कहे हुए (तहिआणं) सत्य (मावाणं) पदार्थों का (वासणं) उपदेश (माण) मावना से (सदहतस्स तं) अद्यापूर्वक वर्तने वाले को (सम्मत्त) सम्यक्त्वी ऐसा (विआहि) वीतरागों ने कहा है ।
भावार्थ:-हे गौतम ! जिसकी भावना विशुद्ध है उसके द्वारा कहे हुए यथार्य पदार्थों को जो भावनापूर्वक श्रद्धा के साथ मानता हो, वहीं सम्यक्त्वी है ऐसा समी तीर्थकरों ने कहा है। मूल:-निस्सग्गुबएसरुई, आणरुई सुत्तबीअरुइमेव ।
अभिगमवित्थाररुई, किरियासंखेबधम्मरुई ॥५।। छाया:--निसर्गोपदेशरुचिः, आज्ञाचिः सूत्रबीज रुचिरेव ।
अभिगमविस्ताररुचि:, क्रिया संक्षेपधर्मरुचिः ।।५।। अम्बया:-- हे इन्द्रभूति ! (निस्सरगुवएसरुई) बिना उपदेश, स्वमाव से और उपदेश से जो रुचि हो (आणरुई) आज्ञा से रुचि हो (सुत्तबीअरुइमेव) श्रुत श्रवण से एवं एक से अनेक अर्थ निकलते हों वैसे वचन सुनने से रुचि हो (अभिगमवित्थाररुई) विशेष विज्ञान होने पर तथा बहुत विस्तार से सुनने से कचि हो (किरियासंखेवधम्मरुई) क्रिया करते-करते तथा संक्षेप से य। श्रुत धर्म श्रवण से रुचि हो। ___ भावार्थ:-हे गौतम ! उपदेश श्रवण न करके स्वमाव से ही तत्त्व की रुचि होने पर किसी-किसी को सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है। किसी को उपदेश सुनने से, किसी को भगवान की इस प्रकार की आज्ञा है, ऐसा सुनने से,
१ तुगन्दस्तुपादपूर्थि ।