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सम्यक् निरूपण | छाया:-परमार्थसंस्तबः सुदृष्टपरमार्थसेवनं वाऽपि ।
व्यापम्नकुदर्शनवर्जनं च सम्यक्त्वश्रद्धानम् ॥२॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति । (परमत्थसंथवो) तात्त्विक पदार्थ का चिन्तबन करना (वा) और (सुदिपरमत्सवणा) अच्छी तरह से देखे हैं तात्त्विक अर्थ जिन्होंने उनकी सेवा शुश्रूषा करना (य) और (अवि) समुच्चय अर्थ में (पापण्ण कुसणवजणाए) नष्ट हो गया है सम्यक्रव वर्शन जिसका, और जो दोषों से सहित है दर्शन जिसका, उसकी संगति परित्यागना, यही (सम्मतसद्दहणा) सम्यक्त्व को श्रद्धना है ।
भावार्थ:-हे गौतम ! फिर जो बारंबार तात्त्विक पदार्थ का चिन्तवन करता है । और जो अच्छी तरह से तात्त्विक अर्थ पर पहुंच गये हैं, उनकी यथा पोग्य सेवा शुश्रूषा करता हो, यमा जो सम्यक्त्व दर्शन से पतित हो गये हैं, व जिनका "दर्शन सिद्धान्त" दूषित है, उनकी संगति का त्याग करता हो वही सम्यक्त्वपूर्वक श्रद्धावान् है। मूल:-कुप्पवयणपासंडी, सब्वे उम्मग्गपटुिआ ।
सम्मग्गं तु जिणक्खायं, एस मग्गे हि उत्तमे ।।३।। छाया:-कुप्रवचनपाषण्डिनः, सर्व उन्मार्गप्रस्थिताः ।
सन्मागं तु जिनाख्यातं, एष मार्गो ह्य त्तम: ॥३॥ अम्बयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (कुप्पवयणपासंडी) दूषित वचन कहने वाले (सम्वे) सभी (उम्मग्गपद्विआ) उन्मार्ग में चलने वाले होते हैं । (तु) और (जिण
खाय) श्री वीतराग का कहा हुआ मार्ग ही (सम्मगं) सन्मार्ग है। (एस) यह (मा) मार्ग (हि) निश्चम रूप से (उत्तमे) प्रधान है। ऐसी जिसकी मान्यता है वही सम्यक्त्वपूर्वक श्रद्धावान् है ।
भावार्थ:-हे गौतम [ हिंसामय दूषित वचन बोलने वाले हैं वे सभी जन्मार्ग गामी हैं। राग-द्वेष रहित और आप्त पुरुषों का बताया हुआ मागं ही सन्मार्ग है । वही मार्ग सब से उत्तम है, प्रधान है, ऐसी जिसकी निश्चयपूर्वक मान्यता है वही सम्यक् प्रतावान् है।