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निर्गुण्य-प्रवचन
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( चरणगुणा ) चारित्र के गुण (न) नहीं ( होंति) होते हैं। और (अगुणिस्स ) चारित्र रहित मनुष्य को ( भोक्खो ) कर्मों से मुक्ति (नथि) नहीं होती है । और (अमुक्करस) कर्मरहित हुए बिना किसी को (निष्वाणं ) निर्वाण (नत्थि ) नहीं प्राप्त हो सकता है ।
भावार्थ:- हे गौतम! सम्भवत्य के प्राप्त हुए बिना मनुष्य को सम्यक् ज्ञान नहीं मिलता है; ज्ञान के बिना आत्मिक गुणों का प्रकट होना दुर्लभ है । विना आस्मिक गुण प्रकट हुए उसके जन्म-जन्मान्तरों के संचित कर्मों का क्षय होना दुःसाध्य है और कर्मों का नाश हुए बिना किसी को मोक्ष नहीं मिल सकता है । अतः सब के पहले सम्यक्त्व की आवश्यकता है ।
मूलः -- निस्संकिय निक्कंखिय निव्वितिगिच्छा अमुहृदिट्ठी य । उववूह थिरीकरणे, बच्छल्लपभावणे अटू ||८|| निर्विचिकित्सा मूढदृष्टिच । वात्सल्यप्रभावतेऽष्टो || ||
छाया: --- निःशंकितं निःकांक्षितम् उपबृंहा- स्थिरीकरणे,
अर्थ: है हन्द्रभूति ! सम्यक्त्वधारी वही है, जो ( निस्संकिय ) निःशंकित रहता है, (निक्कंखिय) अतस्वों की कांक्षारहित रहता है । (निब्बिति छा) सुकृतों के फल होने में संदेह रहित रहता है। (य) और ( अमुक दिट्ठी) जो अतत्त्वचारियों को ऋद्धियन्स देख कर मोह न करता हुआ रहता है। (उबवूह थिरीकरणे ) सम्यक्वी की दृढ़ता की प्रशंसा करता रहता है । सम्यवत्व से पतित होते हुए को स्थिर करता ( वच्छल्लप भावणें ) स्वधर्मो जनों की सेवा-शुश्रूषा कर वात्सल्य भाव दिखाता रहता है। मौर आठवें में जो सन्मार्ग की उन्नति करता रहता है ।
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भावार्थ :- हे आयें ! सम्यक्त्वधारी वही है, जो शुद्ध देव, गुरु, धर्मरूप तत्वों पर निःशंकित होकर श्रद्धा रखता है। कुदेव कुगुरु कुधर्मं रूप जो अतत्त्व हैं, उन्हें ग्रहण करने की तनिक भी अभिलाषा नहीं करता है। गृहस्थ षमं या मुनिधमं से होने वाले फलों में जो कभी मी संदेह नहीं करता । अन्य दर्शनी को धन-सम्पत्ति से भरा-पूरा देख कर जो ऐसा विचार नहीं करता कि मेरे दर्शन से इसका दर्शन ठीक है, तभी तो यह इतना धनवान् है । सम्यक्त्वधारियों की यथायोग्य प्रशंसा करके जो उनके सम्यक्त्व के गुणों की वृद्धि करता है,
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